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से सम्बन्धित पंक्तियाँ निम्नांकित है
श्री बुरानपुर नगर मझारे, पीठ मां रह्या चोमास रे, श्री मनमोहन वीर प्रसादें, रच्यो ओ मे रास रे । संवत सत्तर बत्रीसा वरसे, शुभ महुर्त शुभ वार रे, सूरविजय कहे सम्पूर्ण कीधो, रास त्रीजे खंड उदार रे ।
मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
यह रास तीन खंडों में पूर्ण हुआ है, इसकी अन्तिम पंक्तियाँ इस प्रकार हैं
भगतां गुणतां ने सांभलतां, थुणतां हरष अपार, गुण गाता वली गुणवंत केरा, वरत्यो जय जयकार । '
इनकी एक रचना हीरविजयसूरि रास सं० १७२४ का उल्लेख देसाई ने किया था, पर विवरण नहीं है ।
सूर ये दिगम्बर सूरि इन्द्रभूषण के प्रशिष्य और श्रीपति के श्रावक शिष्य थे । इनकी रचना का नाम 'रतनपाल नो रास' है । इससे पूर्व वर्णित सुरविजय की रचना रतनपाल रास में थोड़ा हेरफेर करके किसी दिगंबर लेखक ने यह रास भी तीन खंडों में सं० १७३२ आसो शुक्ल ५, रविवार को लिख दिया । बुरानपुर के बदले रचना स्थान वर्धनपुर, लेखक सुरविजय के स्थान पर मात्र सूर नाम दिया गया है । यह भी दान के महत्व पर रचित है,
यथा
दान प्रबंध ग्रन्थ दीठो, सरवरो ओ अधिकार रे ।
इसमें रत्नवती रत्नपाल का चरित्र दृष्टान्त स्वरूप वर्णित है,
यथा
रत्नवती रत्नपाल नो, चरीत्र कह्यो ओ सार, सुणतां बहु सुष पामीओ, लहिओ लछि अपार ।
१. मोहनलाल दलीचन्द देसाई -- जैन गुर्जर कवियो, भाग २, पृ० २९४-२९६ और भाग ३, पृ० १२८२-८३ ( प्र० सं० ) और वही भाग ४, पृ० ४६०४६३ (न०सं०) ।
२. वही, भाग १, पृ० ४९९ (प्र०सं० ) ।
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