________________
५२४
मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
७. को अमरसर में दीक्षा ली और प्रसिद्ध विद्वान् हर्षनन्दन गणि से शास्त्राभ्यास किया । इन्हें सं० १६७४ फाल्गुन शुक्ल सप्तमी को मेड़ता में सूरिपद प्रदान किया गया और इनका नाम जिनसागरसूरि रखा इनके पट्टधर जिनधर्मसूरि भी बीकानेर निवासी रिणमल की भार्या रतना दे की कुक्षि से सं० १६९८ पौष शुक्ल द्वितीया को पैदा हुए थे। इनके बाल्यकाल का नाम खरहथ था। इन्हें सं० १७११ में आचार्य पद और सं० १७२० में जिनसागर के निर्वाणोपरांत सरि पद प्राप्त हुआ था। सं० १७४६ में जिनधर्मसरि का लणकरणसर में स्वर्गवास हुआ था। श्री निर्वाणरास ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह में प्रकाशित है । इस रास का प्रारम्भ इन पंक्तियों से हुआ है ---
समरुं सरसति सामिनी, अविरल वांणि दे मात, गुण गाइसु गुरुराज ना, सागर सूरि विख्यात । सहर वीकाणो अति सरस, लषिमी लाहो लेत,
ऊस वंश मइ परगडा, बोहिथरा विरुदैत । रचनाकाल -
संवत सतर बीणोत्तरइ अ, सुमतिवल्लभ ओ रास;
श्रावण सुदि पुनिम दिनि अ, कीधो मनह उल्लास। इस रास को पूर्ण करने में सुमतिवल्लभ ने अपने शिष्य सुमति समुद्र के सहयोग का भी उल्लेख किया है, यथा --
श्री जिनधर्म सुरीसरो अ, माथि छि मुझ हाथ,
सुमतिवल्लभ मुनि इम कहइ, सुमतिसमुद्र शिष्य साथि ।' इसमें सुमतिवल्लभ के गुरु और उनके शिष्य दोनों का नाम आ गया है। इस रास में सुमतिवल्लभ ने दादागुरु जिनसागर सूरि के निर्वाण पर उनका गणानुवाद इस रास द्वारा किया है साथ ही अपने गुरु जिनधर्म सरि का संक्षिप्त परिचय आदर पूर्वक किया है। इसीलिए गच्छ की दृष्टि से इस रास का ऐतिहासिक महत्व है। किन्तु साहित्यिक दृष्टि से यह सामान्य रचना है । १. ऐतिहासिक जैन काव्यसंग्रह पृ० १९१-१९८ और मोहनलाल दलीचन्द
देसाई-जैन गुर्जर कवियो, भाग २, पृ० २०२-२०४ भाग ३, पृ० १२१६ (प्र० सं०) और वही भाग ४, पृ० २९९-३०१ (न०सं०) और अगरचन्द नाहटा - परंपरा, पृ० १०५ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org