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मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास संवत सत्र से इक्यावना, नगर आगरे मांहि,
भादौ सुदि सुख दूज को, बाल खाल प्रगटाय ।' किन्तु नाथू राम प्रेमी सं० १७३२ को ही सही रचना-तिथि बताते हैं। उन्होंने यह सूचना जैन मंदिर कठवारी, रुनकता, आगरा की प्रति के आधार पर दी है। हो सकता है कि सं० १७५१ प्रति का लेखनकाल हो, मूल रचना सं० १७३२ की हो।
धर्मसार में कुल दोहा-चौपाई छन्दों की संख्या ७६३ है। उसका एक पद्य भी नमूने के तौर पर यहां दिया जा रहा है--
वीर जिनेसर प्रनवों देव, इन्द्र नरेन्द्र करै तुव सेव; और वंदों हूँ गुरु जिन पाय, सुमिरत जिनके पाप नसाय।'
ये पंक्तियां ललकारकर शिरोमणिदास को जैन साधु घोषित कर रही हैं। वे सुधारवादी जैन साधु थे और उनकी रचनाओं का स्वर कबीर की तरह फक्कड़ाना है।
शिवदास - (चारण) इनकी एक वचनिका उपलब्ध है जिसका नाम है--'अचलदास भोजावत री गुण वचनिका', यह रचना सं० १७९५ से पूर्व की है। इसमें अचलदास भोजावत का गुणगान चारण शैली में किया गया है। अचलदास बादशाह के साथ युद्ध करते हुए बीरगति को प्राप्त हुए थे। चारण शिवदास कहते हैं कि वीरगति प्राप्त अचलदास के लिए विश्वकर्मा ने विष्णपूरी; इंद्रपुरी और ब्रह्मपुरी के बीच अचलपुरी का निर्माण किया और वहाँ अचलेसर जी को सिंहासनस्थ किया। इसका वर्णन गद्य वार्ता में इस प्रकार किया गया है--
धन धन राजा अचलेसर भोजुनया, महाराज जी विश्वक्रमा बोलाया, विश्वक्रमा जी आया, विश्वक्रमा जी विसनपुरी इन्द्र की इन्द्रपुरी, ब्रह्मा की ब्रह्मपुरी विचै अचलपुरी बसायो ओक अधखण माहे ऊपावो,
राजा अचलेसर जी ने पाट धरावो। १. नागरी प्रचारिणी सभा काशी की १५वीं त्रैवार्षिक खोज रिपोर्ट, विवरण
संख्या २२० । २. श्री नाथूराम प्रेमी-हिन्दी जैन साहित्य का इतिहास, १९१७ ई., पृ० ६७ ३. प्रेमासाकर जैन हिन्दी जैन भक्तिकाव्य और कवि, पृ० २५६-२७८
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