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सुखरतन
इसका प्रारम्भ इन पंक्तियों से हुआ है
श्री यशकुशल मुनीसर ना गुण गावो तुम्ह सुखकारी,
सहुजन ने सुखसाता दायक, विघ्न विडारण हारी। अन्त - महिर करीनइ दीजइ दरशन जो जइ सेवक सार,
सुखरतन कर जोड़ी नै, भवि भवि तूं ही अधार।
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सुखसागर | आप तपागच्छीय कल्याण सागर के प्रशिष्य और सुन्दरसागर के शिष्य थे। आपने अपनी रचना इन्द्रभानु प्रिया रत्नसुंदरी सती चौपाई (३२ ढाल सं० १७३२ भाद्रपद शुक्ल ८, बुधवार रेआंग्राम)' में सती के शील का माहात्म्य समझाया है। इसकी प्रारंभिक पंक्तियाँ निम्नांकित हैं
श्री संषेसर पासजिन, पणमों पय अरविंद, आससेन नृप कुलतिलो, वामा देवी नंद । xx जगदंबा जगदीश्वरी, त्रिण जग केरी माय, बांकेराय विश्वेसरी, सेव्यां बहु सुख थाय ।
सद्गुरु चरण प्रसाद थी, गावं सती गुणगान,
सरस कथा रतनसुंदरी, सुणो भई सावधान । रचनाकाल
संवत संज्यम गुण लेइजइ, नर लष्यण देइ जइ,
भादव सुदि अठमी बुधवारे, ग्रंथ रच्यो सुखकारे जी। गुरुपरम्परान्तर्गत इसमें तपागच्छ के विजयप्रभ, कल्याणसागर और सुन्दरसागर का वन्दन किया गया है। इसकी अन्तिम पंक्तियां इस प्रकार हैदिन दिन पावें श्री की वेलि,
दिनदिन बरतें रूपारेलि, दिन दिन सुखसागर कविसार,
दिन दिन वाधे जय जयकार । १. अगरचन्द नाहटा-परंपरा, पृ० १११ । २. मोहनलाल दलीचन्द देसाई--जैन गुर्जर कवियो, भाग २, पृ. २८७-२९०
(प्र०सं०) और भाग ४, पृ० ४५७-४५९ (न०सं०)।
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