________________
मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
इसमें प्रत्येक माह और मौसम में किए जाने वाले व्यापार के सम्बन्ध में उपयोगी सूचनायें दी गई हैं और व्यापारियों को क्रय-विक्रय का गुर बताया गया है, यथा
बनिकनि को बनिक पिया, भउसारि कौ हेत, आदि अंत श्रोता सुनो, मतो मंत्र सो देत ।'
सुखलाभ--खरतरगच्छ की कीर्तिरत्नशाखा के प्रभावशाली विद्वान सुमतिरंग आपके गुरु थे । आपने जयसेन राजा चौपाई नामक रचना में (सं० १७४८ भाद्र कृष्ण ८, जैसलमेर) रात्रिभोजन त्याग व्रत का पालन करने के लिए राजा जयसेन की कथा को उदाहरण स्वरूप प्रस्तुत किया। इसका उद्धरण अनुपलब्ध है। यह रचना रामलाल संग्रह, बीकानेर में उपलब्ध है।
सुखविजय--आप दयाविजय के शिष्य थे। इनकी एक रचना 'जिन स्तवनों' उपलब्ध है। इसका आदि और अन्त दिया जा रहा है। आदि- पूजो प्रथम जिनेसरु रे लो, आदिसर अरिहंत रंगीला;
प्रथम भिक्षाचर अ प्रभु रे लो, वंदो संमकितवंत रे। अन्त- साहिब जी मुझ नइ दीउ रे, बोध बीज माहाराज,
दयाविजय कविराज नो रे, सुखविजय लहि सुखसाज ।'
सुख रतन--आप कनकसोम के शिष्य थे। भुवनसोम आपके शिष्य थे। उनके शिष्य राजसागर ने आपको बड़ा चमत्कारी और प्रसिद्ध आचार्य बताया है। आपका स्वर्गवास हाजीखान डेरा में हुआ था। इस स्थान की यात्रा राजसागर ने सं० १७५९ में की थी और स्वयं उनके चमत्कारों की चर्चा वहाँ सुनी थी। सुखरतन ने 'श्री यशकुशल सुगुरु गीतम्' लिखा है जो ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह में प्रकाशित है। १. सम्पादक डा० कस्तचन्द कासलीवाल -- राजस्थान के जैन शास्त्रभंडार
की ग्रन्थसची, भाग ३, पृ० १२१-१२२ । २. मोहनलाल दलीचन्द देसाई ---जैन गुर्जर कवियो, भाग ३, पृ० १३४५
(प्र०सं०) और भाग ५, पृ० ७० (न०सं०) । ३. वही भाग ३, पृ० १५२९ (प्र०सं०) और भाग ५, पृ० ३७३ (न०सं०)।
४. ऐतिहासिक जैन काव्यसंग्रह-श्री यशकुशल सुगुरु गीतम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org