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सिंहविमल
आदि
अन्त
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अन्त
मगध देश नी राज राजेसर हय गज-रथ-पखरियो, श्रेणिक चेलणा देवी बालेसर रथ वाडी संचरीयो के, राजन;
अनाथी ऋषि चरित्र पाली कीधी शिवपुर वास;
सहविमल कर जोड़ी बोले छोड़ बज्यो गर्भवास के । राजन । ऋषिराय पंच महाव्रत धारी । "
सुखदेव -- आपकी रचना 'वणिक निधि' व्यापार-वाणिज्य संबंधी महत्वपूर्ण विषय पर आधारित है । इसका रचनाकाल सं० १७६० और सं० १७१७ दोनों मिलता है। लेकिन डॉ० कासलीवाल ने रचनाकाल से सम्बन्धित जो पंक्तियाँ उद्धृत की है उनसे सं० १७१७ ही प्रमाणित होता है, रचनाकाल --
सत्रह से सत्रह बरस संवत्सर के नाम, कवि करता सुखदेव कह लेखक मायाराम ।
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इनके पिता का नाम विहारीदास था । सुखादेव गोला पूरब जाति के वैश्य थे । यह दोहे चौपाइयों में लिखी व्यापार विषयक अच्छी रचना है। इसकी भाषा साधारणतया प्रसादगुण सम्पन्न हिन्दी है । इसका प्रारम्भ इस प्रकार है
गुरु गनेस कहै सुखदेव, श्री सुरसती बतायो भेव,
बनिक प्रिया बनिक बांचियो, दिया उजियार हाथ के दयो । गोला पूरब पचविसे वारि विहारीदास,
तिनके सुत सुखदेव कहि, बनिक प्रिया प्रकास ।
ज्येष्ठ मास में वस्तु - व्यापार के बारे में उपयोगी सूचनायें निम्न पंक्तियों में दिया गया है
ग्रीष्म ऋतु वरसै लछिमी, वचै वस्तु न आवै कमी, यहि मति जौ न मान है कोई, वीधै सारै व्याज गये सोई । जेठ वस्तु न धरिये धाइ, अपने तोइ तौं वेचो जाइ, साहु सम्हार रहियौ बाकी, जल के वरसँ दुलभ गहकी । afts प्रिया मैं सुभ असुभ सबही गयो बताइ, जिहि जैसी नीकी लगे, वैसी कीजो जाइ ।
१ मोहनलाल दलीचन्द देसाई -- जैन गुर्जर कवियो, भाग ५, पु० ४१६
( न०सं० ) ।
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