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मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास संवत सत्तर सिं तेरोत्तर शुभ (सुचि) मास, सुदि सातम शुक्रि स्वाति योग सुभ तास, सूरि विजयप्रभ राजइ चित्त उल्लास,
तपरवाडा मांहि थुणियो रही चउमास ।' इसके कलश में उपर्युक्त गुरु परम्परा बताई गई है। यह रचना प्रकरणादि विचार गभित स्तवन संग्रह और जिनगुण पद्मावली में प्रकाशित है। देसाई ने भ्रमवश इसे अमीचंद की ही रचना बताया था किन्तु बाद में भूल सुधार कर दिया था। इनकी एक और कृति महावीर स्तवन सं० १७१३ का भी उल्लेख मिलता है पर विवरण अनुपलब्ध है।
स्थिरहर्ष --खरतरगच्छीय सागरचंद्र शाखान्तर्गत समयकलश7 श्रीधर्म>मुनिमेरु आपके गुरु थे। आपने सं० १७०८ फाल्गुन शुक्ल पंचमी को 'पद्मारथ चौपाई'३ की रचना की है। यह रचना स्थिरहर्ष ने शेरगढ़ में की थी। इस कृति का उद्धरण उपलब्ध नहीं है।
सिंह- आप कनकप्रिय के शिष्य थे । इनकी गच्छ परम्परा अज्ञात है। सिंह ने सं० १७८१ में 'शालिभद्र सलोको'" (गाथा १४७) लिखा था। यह रत्नसागर संग्रह में प्रकाशित है। इसका भी उदाहरण अप्राप्त है।
सिंहविमल-इन्होंने 'अनाथी ऋषि स्वाध्याय' (१९ कड़ी) सं० १७६० से पूर्व लिखा था। इसका आदि और अन्त दिया जा रहा है१ मोहनलाल दलीचंद देसाई-जैन गुर्जर कवियो, भाग २, पृ० १५२-१५३,
भाग ३, पृ० १२००-०१ (प्र०सं०) और भाग ४, पृ० २५४-२५५
(न०सं०)। २ वही ३. मोहनलाल दलीचन्द देसाई--जैन गुर्जर कवियो, भाग ३, पृ० ११४४
(प्र०सं०) और भाग ४, पृ० १६४ (न०सं०) । ४. अगरचन्द नाहटा--- परंपरा, प० १०७ । ५ मोहनलाल दलीचंद देसाई-जन गुर्जर कवियो, भाग ३, पृ० १४३९ __(प्र० सं०) और भाग ५ पृ० ३३८ (न०सं०) ।
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