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शिवदास
५०१ यहाँ पाट शब्द द्रष्टव्य है। हिन्दी कथा कहानियों में राजाओं के राजपाट की बात चलती है । इसी पाट को विशिष्ट अर्थ देते हुए जैन परंपरा में 'पाट' का अर्थ पट्टधर की 'गादी' किया गया है। अचलदास की वीरता का पद्यबद्ध वर्णन देखिये--
गढ खांड पडती गागिरण दिढ देखे सुरतांण दल;
संसार नाम आतम सरग अचले बै कीधा अचल । गद्य में मंगलाचरण किया गया है और सरस्वती की वन्दना है, यथा--
..'चरणं वेणां पुस्तक धारिणी कासमीर गिरकंदरे वसती गीतनाद गुण गुणगाह दैयण देव कवीयणां दायन ।' गद्यरूप (१८वीं शती) का परिचय देने के लिए ही ऐसी रचनाओं का उल्लेख कर दिया गया है।
शील विजय - तपागच्छीय शिवविजय आपके गुरु थे। आपने सं० १७४६ में 'तीर्थमाला' की रचना चार खण्डों में पूर्ण की। इसका आदि--
अरिहंत देव नमु सदा, जस सेवि गुरुराय; तीर्थमाला थुणस्यु मुंदा, सद्गुरु तणी पसाय । अरिहंत मुख कंज वासिनी वाणी वर्ण विलास,
कविजन माता विनवू, पूरो मुझ मन भास । इसके प्रथम खण्ड में पश्चिम प्रदेश में स्थित कई तीर्थों का वर्णन है । साथ ही कुम्भाराणा के प्रधान प्रागवंशी धरणीसाह की विमलाचल संघयात्रा का भी वर्णन है। इसी प्रकार इसके अन्य खण्डों में विविध तीर्थों और संघयात्राओं का सोत्साह वर्णन किया गया है। पूर्व देश की यात्रा का वर्णन द्वितीय खण्ड में दक्षिण देश की यात्रा और तीर्थों का वर्णन तृतीय खण्ड में तथा उत्तर दिशा की संघ यात्राओं और तीर्थों का वर्णन चतुर्थ खण्ड में मुख्य रूप से किया गया है। उत्तर दिशा में स्थित केदार, कुरुक्षेत्र, हरद्वार जैसे जैनेतर तीर्थों की भी चर्चा है । प्रथम खण्ड के अन्त में कलश है उसी में रचनाकाल इस प्रकार दिखाया गया है१. मोहनलाल दलीचंद देसाई--जैन गुर्जर कवियो, भाग ३, पृ० २१८१-८२
(न०सं०)।
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