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गुरु परंपरा-
गुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
वेगड़ विरुद बखान गछ खरतर गच्छ नी साख, श्री जिनचंद स्वसूरीश्वरी, परमचंद गुरु भाख । धर्मचंद नित ध्याइये, ग्यानसुखड़ी ग्रंथ, तसु प्रसाद कज्यं लहुं, मुक्त महिल को पंथ । '
सत्यसागर - ये तपागच्छीय विनीतसागर के प्रशिष्य और रत्नसागर के शिष्य थे । इनकी रचना 'वछराज रास' सं० १७९९ में सूरत के चौमासे में पूर्ण हुई थी । यह कृति शांतिनाथ चरित्र पर आधारित है । इसमें वछराज की कथा दी गई है
शांतिनाथ चरित्र थी, रच्यो ओ रास रसाल, वछराज नरपति तणो, अनुपम गुणगणमाल । इसमें हीरविजय सूरि और सम्राट् अकबर के भेंट की चर्चा हैअकबर साह असुर प्रतिबोधी, जैन निसान बजाया ।
तत्पश्चात् विजयसेन, विजयदेव, विजयप्रभ, विजयरतन, विजयक्षमा, विजयदया, लक्ष्मीसागर, विद्यासागर, आणंदविमल, सहजविनय, प्रीतिज्ञान, विनीतसागर और रत्नसागर तथा उनके गुरुभाई धीर भोज सुरज और जयंत का ससम्मान स्मरण किया गया है । रचनाकाल से संबंधित पंक्तियां आगे उद्धृत कर रहा हूँ
संवत सतर से निन्नाणुजी, सूरति सहर चोमासु जी, श्री पूज्य जी प्रभु आप विराज्या तेहों ने रहीया पासे जी । इसे कवि ने श्रावक लाघो जी के आग्रह पर लिखा था
साह लाघोजी विनय विवेक, सगली बात सनूरो जी, तेह तणां आग्रह थी कीधो, वच्छराज नृप रास जी । इसकी अन्तिम पंक्तियाँ निम्नांकित हैं
सुगुरु रत्नसागर सुपसाये, रास रच्यो सुविशाल जी, सत्यसागर कहे सकल संघ ने, थाज्यो मंगलमाल जी ।
१. मोहनलाल दलीचंद देसाई - जैन गुर्जर कवियो, भाग ३, पृ० १६३८-३९ (प्र०सं० ) और भाग ५, पृ० ३६६ ( प्र०सं० ) ।
२. वही, भाग २, पृ० ५८८- ५८९; भाग ३, पृ० १४७१ (प्र०सं० ) और भाग ५, पृ० ३६९-३७० (न०सं० ) ।
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