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- इनके अनेक सरस भक्तिपूर्ण पद प्राप्त हैं, यथा-'पेखो सखी चन्द्र सम मुखचंद्र' अथवा 'आदि पुरुष भजो आदि जिणंद ।' 'कौन सखी सुध ल्यावे श्याम की' शीर्षक पद में नेमिराजुल का मार्मिक प्रसंग अंकित है, वह पद उद्धत किया जा रहा है ताकि पाठक इनकी सर्जन क्षमता का अनुमान कर सकें--
कौन सखी सुध ल्यावे श्याम की। मधुरी धुनि मुख चंद विराजित, राजमति गुण गावे; अंग विभूषण मणिमय मेरे, मनोहर मान नी पावे। करो कछू तंत मंत मेरी सजनी, मोहि प्राननाथ मिलावे। यह पद कृष्ण भक्ति शाखा के सशक्त कवि सूरदास जैसा प्रतीत होता है और मरुगुर्जर साहित्य के विशाल रेगिस्तान में यत्र तत्र ऐसे नखलिस्तान सहृदयों के उदास मन को जीवंत और हराभरा कर देते हैं । जैन साहित्य में ऐसे हरेभरे नाना रूप रंगों से विभूषित साहित्यिक स्थल सर्वत्र हैं पर वे अभी भी पाठकों की दृष्टि से ओझल हैं क्योंकि उनका प्रकाशन नहीं हुआ। जो प्रकाशित रचनायें हैं उनमें अधिकतर सिद्धान्त प्रवचन और साम्प्रदायिक दृष्टान्त कथन ही अधिक हैं । __ इनकी कोई बड़ी कृति अब तक प्राप्त नहीं है, सम्भवतः आगे किसी शास्त्र भण्डार से कोई रचना प्राप्त हो जाय; न भी मिलें तो इनके पद इन्हें साहित्य में अमर रखने के लिए पर्याप्त हैं। ये सं. १७४५ तक भट्टारक रहे, इसलिए ये सभी पद इसी काल से पूर्व के हैं। इनके सभी पद जिनभक्ति से रससिक्त हैं । 'जपो जिन पार्श्वनाथ भवतार' आदि विशेष रूप से पठनीय हैं।' .
मुनिशुभचंद्र--आप भट्टारक जगत्कीति संघ के साधु थे। ये हड़ौती प्रदेश के कुजड़पुर स्थित चंद्रप्रभ चैत्यालय में रहते थे और वही सं० १७५५ में इन्होंने 'होली कथा' की रचना की जिसे भाषा प्रयोग की दृष्टि से अच्छी रचना बताया गया है । डा० कासलीवाल ने अपनी इस धारणा को प्रमाणित करने के लिए कोई उद्धरण इस रचना से नहीं दिया और न कोई विवरण उपलब्ध हो सका कि यह पद्धबद्ध या गद्यकथा है ?
१. डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल-राजस्थान के जैन संत, पृ० १६०-१६४ ।
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