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मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास पुत्र से माता का यह संवाद बड़ा मार्मिक है, नमूने के लिए एक पंक्ति देखें
तुं मुझ प्यारा प्राण थी हो धन्ना हुं तुझ जा न परदेस ।' इस प्रकार हम देखते हैं कि श्रीदेव एक समर्थ कवि और सच्चे साधु थे।
श्रीपति--आपकी एक रचना 'रत्नपाल रास' सं० १७३० का उल्लेख तो मिलता है किन्तु विवरण-उद्धरण नहीं मिले ।
श्रीसोम--ये युगप्रधान जिनचंद्र सूरि>उपा० धर्मनिधान> समयकीर्ति के शिष्य थे। इन्होंने सं० १७२५ में 'भुवनानंद चौपाई' (१३ ढाल) की रचना असनीकोट में की। ___इसमें शील का महत्व भुवनानंद के चरित्र के दृष्टांत से समझाया गया है, यथा
दान तपस्या भावना, मोटा छइ जगमांहि,
सील समो जगि को नही, पाणी पावके थाहि । रचनाकाल--
सत्तरइ सइ पचवीस संवत्सरइ, असणीकोट मझारि, मगसिर वदि पंचमि शुक्रवासरइ, पुरइ कीधउं अधिकार । इसकी प्रारम्भिक पंक्तियाँ भी आगे दी जा रही हैं--
चउवीसे जिनवर चरण, रिद्धि सिद्धि करतार, नमता नवनिधि संपजे, निरमल द्यइ मतिसार । गुण गिरुआ गुरु जण नमू, ज्ञानदृष्टि दातार,
मूरख थी पंडित करइ, आणी मनि उपगार । श्री मोहनलाल दलीचन्द देसाई ने इसे पहले तो समयकीति की रचना बताया था। किन्तु बाद में उसे सुधार कर श्री सोम की रचना
१. मोहनलाल दलीचन्द देसाई--जैन गुर्जर कवियो, भाग ३, पृ० १३४६
(प्र०सं०) और भाग ५, पृ. ४०८-४११ (न०सं०) । २. अगरचन्द नाहटा-परंपरा, पृ० १०८ । ३. अगरचन्द नाहटा-परंपरा, पृ० १०५ ।
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