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वृद्धि विजय
मोह महाभाव पाने ताने नाच्यो महेश, बंभ रमे करमें करी पुत्र सुं सुविशेष | केसव ते सवि लज्जा लोपी गोपी रत्त, अहो तिहुअंग जयकारी मोह महा उन्मत्त |
इस महामोह से मुक्ति दिलाने में समर्थ पार्श्वनाथ की इसमें वंदना की गई है।
पास सुषवास प्रभु तेह सोहे, नेहभरी नीरबतां चित्त मोहे; माता वामा सती जेह जायो, सुरनर कीन्नर कोडि मायो । इसका रचनाकाल देखिये
दर्शन मुनी शशी मान वर्षे, साईंपुर नयरमां चित्तहर्षे । ज्ञानगीता करी प्रेमपूर, पास प्रभु संथुण्यो चढ़त नूर । गुरुपरंपरा से संबंधित दो पंक्तियाँ भी देखें
धीर विजय कवि सेवक लाभविजय बुध सीस, बुद्धि विजय कहे पास जी, पूरी सयल जगीस | " 'दशवैकालिक ना दश अध्ययन नी दश संञ्झायो' का आदि( प्रथम द्रुम पुष्पिका अध्ययन )
श्री गुरुपद पंकज नमी जी, बली धरी धर्म नी बुद्धि, साधु क्रिया गुण भाखशुंजी, करवा समकित शुद्धि ।
अंत -- श्री विजयप्रभ सूरि नै राजइ, बुध लाभविजय नउ सीस रे, वृद्धिविजय विबुध ३ आचारै औ, गायो सफल जगीसइ रे । यह रचना प्रकाशित है ।
आपकी तीसरी उपलब्ध रचना है ' शंखेश्वर पार्श्वनाथ स्तवन' ( ३८ कड़ी, सं० १७३० भाद्र शुक्ल ५ ) इसकी प्रारंभिक पंक्तियाँ निम्नवत् हैं।
प्रभु पास जी मिलीयो तो मनवंछित
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पातक परजलियो दुःखसति
१. प्राचीन फागुसंग्रह, पृ० २१७
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फलियो काज रे साहेब जी,
दलियो आज रे साहेब जी ।
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