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मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास प्रभाव परिलक्षित होता है । उदाहरणार्थ इसकी दो पंक्तियाँ पर्याप्त हैंलग रही मो हिय दरसन की, पिया दरसन की आस;
दरसन काहे न दीजिए। काहे को भूले भ्रम पिया, भूले भ्रम जाल;
___ मोह महामद पीजिए ।' पद-आपने उत्कृष्ट गेय पद रचे हैं जो भक्तिभाव से सराबोर है। एक पद का साहित्यिक स्वाद लें--
ता जोगी चित लाऊं। सम्यक् डोरो सील कछोटा धुलि धुलि गाँठ लगाऊ । ग्यान गदरी गल में मेलौं जोग आसन ठहराऊ । आदि गुरु का चेला होकै मोह का कान फराऊ ।
शुक्ल ध्यान मुद्रा दोउ सोहै, ताकी सोभा कहत न घाऊ । ये पद कबीर आदि निर्गुण सन्तों के पदों जैसे श्रेष्ठ आध्यात्मिक भावों से भरे हैं, यथा--
कैसे देहुं कर्मनि खोरि, या जिननाम ले रे बौरा तू जिन नाम लैरे बौरा, अथवा
साधो नागनि जागी, ता जोगी चित लाऊं । इत्यादि अनेक सुमधुर और भक्तिभावपूर्ण पदों की आपने रचना की है।
ढाई द्वीप –यह रचना संस्कृत में है किन्तु इसकी कई जपमालायें हिन्दी में हैं । इसलिए इसका उल्लेख हिन्दी रचना में भी किया जा सकता है। इनका भक्तिभाव तथा काव्यत्व दोनों ही उच्च कोटि का था।
वीरविजय-तपागच्छ के साधु कनकविजय इनके गुरु थे। विजयसिंह सूरि निर्वाण स्वाध्याय (१७०९, भाद्र कृष्ण ६. सोमवार, अहमदाबाद) इनकी प्रसिद्ध रचना है। विजयसिंह सूरि की मृत्यु सं० १७०९ आषाढ़ शुक्ल ९ को अहमदाबाद में हुई थी। उसके दो माह
१. डा. प्रेमसागर जैन--हिन्दी जैन भक्तिकाव्य और कवि, प० २५८-२६८ २. श्री कामताप्रसाद जैन-हिन्दी जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास,
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