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चोथो खंड वर चउपदं पुरण बधते प्रेमो रे, ढाल चोत्रीसमी धनाश्री, ऋद्धि वृद्धि वरो नेमो रे । इसकी अंतिम पंक्तियाँ इस प्रकार हैं
मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
मृगांक लेषा गुण सलेष्यो देष्यां मुझ मन सुषकरु, तपगछराज जेवी साहिब सुं, विवेक संघ मंगलकरु । ' यह रचना मृगांकलेखा और सागरचन्द के सम्बन्धों पर आधारित है ।
विवेकविजय II - आप तपागच्छीय आचार्य हीरविजय शुभविजय > भाणविजय > ऋद्धिविजय > चतुरविजय के शिष्य थे । इनकी रचना 'रिपुमर्दन रास' (१७ ढाल) सं० १७६१ व्यंक मास शुक्ल ११, भृगुवार, वडावली में पूर्ण हुईं । यह शील के माहात्म्य पर रचित है । इसका आदि इस प्रकार है-
थंभणपुरवर पास जिण, हूं प्रणमु तुम पाय, वामानंदन नाम थी, परम पामुं सुखदाय । सरसति भगवति आपयो, मुझ नइ बुद्धि प्रकाश, कालिदास जिम माघ तिम, तिम द्यो वचन विलास ।
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दान शील तप भावना कहीई, ओ जग मां सही च्यारे रे, अ च्यार थी अधिको जाणो, शील सुखकारे रे ।
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रचनाकाल
संवत चैक सैलादिक रागा, ज्ञानी नाम धरीजे रे, मास व्यंक अजुआली तिथि सीवा, वार भलो भृगु लीजे रे
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यह रचनाकाल अस्पष्ट है, मोहनलाल दलीचन्द देसाई ने पहले इसका रचनाकाल सं० १६७५ बताया था, बाद में सं० १७६१ बताया । इनकी अन्य रचना भी १८वीं शती की है अतः यह भी इसी समय की अवश्य होगी । रचनाकाल में प्रयुक्त 'चैक' शब्द का अर्थ एक; शैल का सात, आदि का एक और राग का अर्थ यदि छह लगाया जाय तो संवत् १७६१ मिलता है । पर इस प्रकार रचनाकाल गिनाने की बुझौवल १. मोहनलाल दलीचन्द देसाई - जैन गुर्जर कवियो, भाग २, पृ० २७३-२७५ और भाग ३, पृ० १२७८ ( प्र० सं० ) और भाग ५, पृ० ३७ ( न०सं० ) ।
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