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विवेकविजय
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परिपाटी बड़ी भ्रामक है । इसका दूसरा अर्थ भी लगाया जाना संभव है। इसी तरह इसकी अंतिम पंक्तियों में कहा गया है कि यह रचना राग धनाश्री में की गई है । यह भी एक रूढ़ि ही है । ऐसा प्रायः कवि कहते हैं कि उनकी रचना धनाश्री राग में आबद्ध है पर सभी रचनायें राग सम्बन्धी नियमों पर खरी नहीं उतरती, पंक्तियाँ देखेंअन्त-- राग धनाश्री ढाल सतावीस, रिपुमर्दन गुण गाया रे,
विवेकविजय कहे सुणतां सहुने, आणंद ऋद्धि सवाया रे। इनकी दूसरी रचना 'अर्बुदाचल चौपाई' (सं० १७६४ जेठ कृष्ण ५, दांता) का आदि इस प्रकार हुआ है--
सरस वचन द्यो सरस्वती, भगवती भारती माय,
अर्बुदना गुण गायवा, मुझ मन आणंद थाय । लेखक ने रचना स्थान बताते समय दांतों के अन्तर्गत एक सौ साठ गाँव बताये हैं और दांतां तालुका के राजा का नाम पृथ्वी सिंह बताया है। इसमें रचनाकाल स्पष्ट है-- __ संवत सतर चोसठा तणो अ, अवल ज अनोपम मास के;
जेठ वदनी पांचमे अ, गाओ हर्ष उल्लास के।' अर्बुदाचल चौपाई का रचनाकाल जब स्पष्ट ही सं० १७६४ है तो पहली रचना रिपुमर्दन रास सं० १६७५ की हो नहीं सकती, इसलिए सं० १७६१ सत्य के अधिक करीब है। __ अन्त में वही गुरु परम्परा इसमें भी बताई गई है जो पहली रचना में कही गई थी। उसमें अकबर बोधक हीरविजय से लेकर प्रारम्भ में लिखे गये सभी गुरुओं का सादर स्मरण किया गया है। इसमें केवल चतरविजय का विशेष रूप से वंदन है। रिपुमर्दन रास के रचनाकाल में 'व्यंक' का अर्थ मोहनलाल दलीचन्द देसाई ने शुचिमास या ज्येष्ठ मास लगाया है, वही महीना मैंने भी बताया है।
१. मोहनलाल दलीचन्द देसाई--जैन गुर्जर कवियो, भाग १, पृ० ४९२-९३,
भाग ३, पृ० ९७२ तथा १४११-१२ (न० सं०)। २. वही, भाग ५, प० २१२-२१४ (न सं०)।
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