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विमलसोम सूरि
४८१ विमलसोम सूरि--गुरु परम्परा अविदित, रचना 'प्रभास स्तवन'; रचनाकाल सं० १७८० से पूर्व, क्योंकि सं० १७८० की हस्तप्रति प्राप्त है। आदि- सकल मंगल केरु सुरतरु, पूजइ श्री ऋषभ जिनेसरु,
नाभिराय मरुदेवी शतवरु, पद नमइ विमल सोम सूरीसरु ।' एक विमलसोम हेमविमल सूरि की परंपरा में १७वीं (विक्रमीय) शती में हो चुके हैं, इसलिए ये उनसे भिन्न १८वीं शती के सूरि हैं परन्तु गुरु परम्परा के अभाव में कुछ निश्चित रूप से कहना कठिन है।
विबुध विजय -आप तपागच्छीय विजयसिंह के प्रशिष्य एवं वीरविजय के शिष्य थे। आपने 'मंगल कलश रास' की रचना ४४ ढाल और ६६८ कड़ी में की है। इस रास का प्रारम्भ सं० १७३० में अंत सं० १७३२ के माधव मास द्वितीया बुधवार को सिद्धपुर में हुआ था। इसके मंगलाचरण का प्रारम्भ निम्न पंक्तियों से हुआ है--
- श्री जिनपय प्रणमुं सदा, ऋषभाविक जिनजेह,
चौबीसे मे जिनवर नमु, वाधे अधिको नेह । यह रचना दान के माहात्म्य को दर्शाती है, यथा
दान शियण तप भावना, धरम मे चार प्रकार, प्रथम दान गुण वरणवू, मंगलकलश अधिकार । गुरुपरम्परान्तर्गत विजयदेव, विजयसिह और विजयप्रभ आदि की वन्दना है, तथा राजा जगतसिंह द्वारा विजयसिंह को सम्मानित करने का भी उल्लेख है। इन्हीं विजयसिंह के शिष्य वीरविजय प्रस्तुत कवि विबुधविजय के गुरु थे, यथासकल पंडित परधान, पंडित सिरमुगट समान;
श्री वीरविजय कविराय, सीस विबुध कहे सुपसाय । रचना का प्रारम्भकाल --- श्री विजयरत्न सुरींद ने आदेशे उल्लास,
___ सत्तर त्रीसे बड़नगर चतुर रहिया चौमास । आणंदपुर मे नगर थी जोडवा मांड़यो रास,
संपूरण कीधो सिद्धपूरे, आणी मन उल्लास । १. मोहनलाल दलीचन्द देसाई--जैन गुर्जर कवियो, भाग २, पृ० ७४७
(प्र०सं०) और भाग ५, पृ० ३०९ (न०सं०)।
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