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मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भक्तिभाव से ओतप्रोत है। प्रातःकाल उठकर उनका पाठ करने से शुभगति मिलती है इसीलिए इसे मंगलप्रभात कहते हैं। चतुर्विशति जिनस्तव सवैया (७१ पद्य, सभी सवैया छंद हैं ) में चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति है। आदिनाथ की स्तुति से संबंधित एक सवैया प्रस्तुत है--- जाके चरणारविन्द पूजित सुरिंद इंद
देवन के वन्द चंद सोभा अतिभारी है। जाके नख पर रवि कोटिन किरण वारे
मुख देखे कामदेव सोभा छविहारी है। जाकी देह उत्तम है दर्पन सी देखियत
अपनो सरूप भव सात की विचारी है, कहत विनोदीलाल मन वचन तिहुंकाल
ऐसे नाभिनंदन कू वंदना हमारी है । फूलमाल पच्चीसी-(२५ पद्य ) दोहा, छप्पय, नाराच आदि छंदों का प्रयोग किया गया है। तीर्थंकर नेमिनाथ के चरणों में इन्द्र ने जो फूलमाला अर्पित की उसे इन्द्राणी ने स्वयं पुष्पों, मोतियों-माणिकों से गूथा था, उसकी शोभा का वर्णन इसमें किया गया है, यथा-- सुगन्ध पुष्प बेलि कुन्द केतकी मंगाय के,
चमेलि चंप सेवती जुही गुही जुलाय के ।
सची रची विचित्र भाँति चित्त दे बनाइ है,
सु इन्द्र ने उछाह सो जिनेन्द्र को चढ़ाइहै । प्रसाद स्वरूप उस माला को वह भक्त प्राप्त कर सकता है जो जिनेन्द्र यक्ष और बिंब प्रतिष्ठा करवा कर संघ चलाने का श्रेय प्राप्त करे।
भक्तामर स्तोत्र कथा और भक्तामर चरित --इनमें से प्रथम कृति की रचना सं० १७४७ सावन सुदी २ को हुई यह पद्य में नहीं बल्कि हिन्दी गद्य में रचित है। इसके हस्तप्रति की सूचना नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित हस्तलिखित ग्रन्थों की खोज के त्रैवार्षिक बारहवें विवरण में दिया गया है ।
भक्तामर चरित का रचनाकाल भी यही है पर यह पद्यबद्ध है। इसमें दोहा, कुण्डलिया, अडिल्ल, सोरठा आदि छंदों का प्रयोग हुआ
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