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मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास इसकी भाषा राजस्थानी प्रभावित मरुगुर्जर है। रचना में कथा का आनंद और काव्य रस मिलाकर उपदेश की शुष्कता को कम करने का प्रयास है, फिर भी यह कृति काव्य की दष्टि से सामान्य कोटि की है। इससे शील-चरित्र का महत्व अवश्य उजागर हुआ है। '
रत्नविमल--आप तपागच्छीय दीपविमल>विवेकविमल>नित्यविमल के शिष्य थे। इन्होंने सं० १७८१, बुरहानपुर में एक 'चौबीसी' की रचना की। आपने दान, शील, तप और भावना में से भावना को अधिक महत्वपूर्ण समझकर उसके दृष्टान्त स्वरूप मेला ऋषि का चरित्र चित्रित करते हए एक रचना 'अला चरित्र' नाम से की है। इसमें २१ ढाल हैं। यह रचना सं० १७८५ आसो, बदी १३, हरिश्चन्द्र पुरी में हुई थी। इसका रचनाकाल इस प्रकार बताया गया है--
संबत संयम सर गज सारो, अति हर्ष आसो मासे जी,
धनतेरस दिवस धन जे, ऊछव घणो आवासे जी । गुरुपरंपरा-विजयक्षमा और दयासूरि के पश्चात् ऊपर बताई गुरुपरम्परा का उल्लेख रचना में ससम्मान किया गया है। इसमें भावना का महत्व बताते हुए लेखक ने लिखा है
तिणे भाव थी तो केइ तरस्य, पंचम के गत पाया जी,
भाव ऊपर अतो अधिक भावें, गुण ओला ऋषि गाया जी। इसकी अन्तिम पंक्तियाँ उदाहरणार्थ प्रस्तुत हैं--- संघ चतुर्विध ने सांनिध होयो, अहनीशे अति आणंद जी, रतनविमल कहि नितनित रुडु, प्रेमे प्रमाणंद जी। अकवीसमी ढाले अधिक उच्चांई, मंदिर मंदिर दिप मालि जी, भणतां गणतां सांभला भावें, नितनित होस्ये दिवाली जी।
भवी भावण भावो जी।'
रघुनाथ--रघपति, रुधपति रूपवल्लभ-आप खरतरगच्छीय विद्यानिधान के शिष्य थे। श्री मोहनलाल दलीचन्द देसाई ने जैन गुर्जर कवियो के भाग २ में इनका नाम रघुनाथ दिया था, लेकिन १. मोहनलाल दलीचन्द देसाई-जैन गुर्जर कवियो, भाग ३, पृ० १४४९-५०
(प्र०सं०) और भाग ५, पृ० ३१६-३१७ (न०सं०)। २. वही भाग २, पृ. ५७३-५७४ (प्र०सं०)
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