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मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास इससे स्पष्ट है कि आप विजयदेव सूरि > विजयप्रभ सूरि7 कनक विजय के शिष्य थे। कवि ने अपना नाम रामविजय के स्थान पर केवल 'राम' दिया है।
रामविमल-ये तपागच्छीय सोमविमल के प्रशिष्य एवं कुशलविमल के शिष्य थे। इन्होंने 'सौभाग्य विजय निर्वाण रास' अथवा 'साधुगुण रास' की रचना सं० १७६३ औरंगाबाद में की। जैन सत्यप्रकाश वर्ष २ अंक १२ में सौभाग्यविजय के सम्बन्ध में पर्याप्त सूचनायें दी गई हैं। उससे लगता है कि सौभाग्य विजय एक सच्चे साधु थे। इस रास में उनके गुणों का वर्णन किया गया है। इसकी प्रारम्भिक पंक्तियों में सरस्वती की वन्दना है, यथा ---
सरसति सामिणि पय नमी, पामी सुगुरु पसाय,
साधु तणां गुण गावतां, पातिक दूरि पलाय । रचना स्थान का उल्लेख कवि ने इस पंक्ति में किया है--
नगर अवरंगावाद मांहे रच्यो जी
पंडित श्री सौभाग्य विजय निरवाणहो । गुरुपरम्परान्तर्गत विजयरत्न, सोमविमल और कुशलविमल की वंदना की गई है। सम्बन्धित पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं
तपगछ तेज तरणी सम सोभता जी, श्री विजेरत्न प्रभू भूपाल हो। वादी मदभंजन गंजन केसरी जी, पट्ट प्रभाकर सुगुरु दयाल हो। तस पदपंकज गछ माहि सौभता जी पंडित श्री सोमविमल सुविशाल हो। सेवक कुशल विमल गुण आगरु जी, मुझ थायो गुरु भवि भवि अह कृपाल हो । जे भवि भावें भणे गुणें जी, तस घरि दिन दिन जय जयकार हो, रंगे हो रामविमल इम वीनवें जी, ध्यावें ते पावें भवजलपार हो।
धन धन सोभागी गुरु जी वंदिये जी।' १. मोहनलाल दलीचंद देसाई --जैन गर्जर कवियो, भाग ३, पृ० १४०९-१०
(प्र०सं०) और वही भाग ५, पृ० २२२-२२३ (न० सं०)।
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