________________
४२०
सरस वयण रस वरसती, समरी शारद माय, वयण अनोपम आपज्ये, जिम जग मां जस थाय । कालिदास कविता लहे, ते ताहरो उपगार, माता तिम मुझ ऊपरे धरज्यो हेज अपार । गुरु की वन्दना करता हुआ कवि लिखता है -
मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
गुरु गिरुओ संसार मां, आपे विद्यादान, भोज विमल कविराजनो पामी अविहड मान ।
यह कथा पुण्य के दृष्टान्त स्वरूप लिखी गई है, यथा-पुण्ये उपर संबंध ओ, सुणयो सहु नर नार, सुणता अचिरिज ऊपजे बाधे बुद्धि अपार ।
X
X
X
मत्स्योदर पुण्ये करी पाम्यो सुख भरपूर, ते संबंध सुणंता सदा,
रचनाकाल
संवत सत्तर छत्तीस में, ओ भाष्यो संबंध, सुणता अचिरिज ऊपजे बाधे अति आनंद ।
X
art अधिक नूर |
गुरुपरम्परान्तर्गत विजयप्रभसूरि > विजयरत्न के पश्चात् मानविमल से भोजविमल तक का सादर स्मरण किया गया है। इसकी अंतिम पंक्तियाँ इस प्रकार हैं-
विद्यागुरु गुरु नो गुरु समरंता सुख थाय,
तास पटोधर दीपतो, भोजविमल बुधिराय । ढाल तेतीसमी से कही, रुचिर विमल सूपरांण,
भणे गुणे जे सांभले, तस घरि कोडिकल्याण | '
Jain Education International
रूपभद्र – ये उदयहर्ष के शिष्य थे । इन्होंने सं० १७६८ में 'अजापुत्र चौपाई' की रचना की । अन्य विवरण सन्दर्भादि अज्ञात है ।
रूपविमल - आप कनकविमल के शिष्य थे । आपने 'भक्तामर १. मोहनलाल दलीचन्द देसाई - जैन गुर्जर कवियो, भाग २, पृ० ३३५-५४ (प्र० सं०) और भाग ४, पृ० ४१६-१७ ( न०सं० ) ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org