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मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
( गोडी पार्श्वनाथ ) देशांतरी छंद (त्रिभंगी छंद, ३९ कड़ी) का आदि-
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सुवचन सूंपो सारदा, मया करो मुझ माय, तो सुप्रसन सुवचन तणी, तु मणा न होवें काय । कालीदास सरिखा किया, रंक थकि कविराज, महेर कर माता मुंने निज सुत जाणी निवाज ।
मुहपत्ती पडिलेहण विचार स्तवन ( कड़ी १६) यह मुँहपत्ती के बारे में लिखित शुद्ध सांप्रदायिक रचना है। इसके अलावा कम्मपयडी गर्भित स्तवन ( गाथा २९), कर्म प्रकृति निदान गर्भित स्तवन गाथा ४७; तेरह गुणस्थान गर्भित ऋषभ स्तवन गाथा ५७ आदि उनकी प्राप्त रचनायें हैं । उनकी कुछ अन्य कृतियाँ प्रकाशित भी हैं जैसे इरियावही भिच्छामि दुक्कड संख्या गर्भित स्तवन गाथा १३, आशातना संञ्झाय इत्यादि । "
उनकी एक सरस रचना 'अध्यात्म फाग' प्राचीन फागु संग्रह में प्रकाशित है जिसमें शरीर रूपी वृन्दावन में ज्ञान वसंत के प्रकट होने पर मतिरूपी गोपी के साथ पाँच गोप (इंद्रियाँ) मिलकर सुमति राधा जी के साथ आत्महरि होली का खेल रचाते हैं । इस होली के रूपक द्वारा इस फाग में वेदांत और योग का तथ्य कथन साहित्यिक और सशक्त ढंग से व्यक्त किया गया है । १३ कड़ी की यह छोटी रचना है पर काव्य का सुन्दर उदाहरण है । इससे लक्ष्मीवल्लभ को वास्तविक कवि सिद्ध करने में बड़ी सहायता मिलती है । इसके अलावा इनकी अधिकांश रचनाएँ शुष्क और उपदेश प्रधान तथा संप्रदाय के सिद्धांतों का छंदबद्ध प्रवचन मात्र हैं । इसका आदि और अंत दे रहा हूँ-आदितनु वृन्दावन कुंज ने हो, प्रगटें ज्ञान वसंत, मति गोपिन सुं हंसि सवे हो पंचेउ गोप मिलंत । लक्ष्मीवल्लभ को रच्यो हो इहु अध्यात्म फाग, पातु पद जिनराज को हो, गावत उत्तम राग । २
अन्त
मोहनलाल दलीचन्द देसाई - जैन गुर्जर कवियो, भाग २, पृ० २४३-२४५; भाग ३, पृ० १२४६-५५ (प्र० सं० ) और भाग ४, पृ० ३४८३५७ ( न० सं०) ।
२. सम्पादक भोगीलाल सांडेसरा - प्राचीन फागु संग्रह पृ० २१९
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