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रहा है । यह रचना २२ ढाल में रचित है । भाद्र कृष्ण ३ गुरुवार बताया गया है, यथा
मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
रचनाकाल सं० १७७३
संवछर सतर तिहुतरि भाद्रव वदि गुरु तीज रे, ये चौपाई कीधी उलासि, सांभलिता चित रीझि रे ।
गुरुपरंपरा इस प्रकार है-
विधिपक्ष गछ गिरुआ गुरुवंदु, विद्यासागर सूरि राजै रे ।
अर्थात् वे विधिपक्ष के विद्यासागर सूरि> भुवन रतन > विजयरत्न > राजरत्न के शिष्य थे । इसके मंगलाचरण की प्रारम्भिक पंक्तियाँ देखें -
सरसति पाय प्रणमी करी आंणी मन उल्लास, सुररांणी सुप्रसाद थी, लहियै लील विलास ।
इसकी अन्तिम पंक्तियाँ निम्नांकित है-
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सुणता अधिकार, नावि तेहनी आपदा, लालरतन सुख चैन सूं, रिध वृद्ध पामि सदा । '
रतनसार कुमार रतनंगद राजा का पुत्र था । इसमें उसके विनय गुण का कथा के माध्यम से वर्णन किया गया है। उसने अपने तपबल से इस लोक में समृद्धि और अन्त में निर्वाण प्राप्त किया ।
लावण्यचन्द -- आंचलगच्छीय अमरसागर आपके प्रगुरु और लक्ष्मीचन्द आपके गुरु थे । आपने सं० १७३४ श्रावण शुक्ल त्रयोदशी को सिरोही में 'साधुवंदना' नामक अपनी रचना १५ ढाल में पूर्ण की । इसके मंगलाचरण की प्रारंभिक पंक्तियाँ देखें-
परम पुरुष वर धर्मप्रकाशक जगत महित अरिहंत, अविनासी शिववासी निरमल सिद्ध अनादि अनंत ।
गुरुपरंपरा - सुविहित तिलक सोहम गणधर थी,
अठतालिसमि पाट जी,
आरिजरक्षित सूरि परम गुरु,
विधिपक्ष ऊपम खाटि जी ।
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१ मोहनलाल दलीचंद देसाई – जैन गुर्जर कवियो, भाग ३, पृ० १४३७-३८ (प्र०सं०) और वही भाग ५ पृ० २९० २९१ ( न०सं० ) ।
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