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मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास के शिष्य थे। इनकी गुरुपरंपरा के संबंध में मतभेद है। श्री मोहनलाल दलीचंद देसाई ने इनके दो गुरुओं का नाम हर्षसागर और पुण्यतिलक बताया है जो दोनों ज्ञानतिलक के शिष्य और परस्पर गुरुभाई थे । विनयचंद ने स्वयं अपनी अधिकतर रचनाओं में ज्ञानतिलक को ही गर बताया है केवल उत्तम कुमार रास में हर्षसागर और पूण्यतिलक का उल्लेख किया है। हर्षनिधान के तीन शिष्यों में हर्षसागर, ज्ञानतिलक और पुण्यतिलक गुरु भाई थे, इसलिए देसाई ने इनकी जो यह गुरु परम्परा बताई है--खरतरगच्छीय समयसुन्दर > मेघविजय > हर्षकुशल > हर्षनिधान > ज्ञानतिलक > पुण्यतिलक और हर्षसागर शिष्य, वह ठीक नहीं लगती बल्कि जैसा पहले कहा गया ये तीनों ज्ञानतिलक, पुण्यतिलक और हर्षसागर हर्ष निधान के शिष्य थे, नकि पुण्यतिलक और हर्षसागर ज्ञानतिलक के शिष्य। अपनी रचना उत्तमकुमार रास (४२ ढाल ८४८ कड़ी सं० १७५२ फाल्गुन शुक्ल ५ गुरुवार, पाटण में उन्होंने गुरु परम्परा बताते हुए खरतरगच्छ के प्रसिद्ध आचार्य जिनचंद्र, तत्पश्चात् उनके विद्वान् शिष्य समयसून्दर का सादर स्मरण किया है। हर्षनिधान समयसुंदर के शिष्य थे । आगे कवि ने हर्ष निधान के तीन शिष्यों का इन पंक्तियों में उल्लेख किया है--
तीन शिष्य तसु जाणिये रे, पंडित चतुर सुजाण; साहित्यादिक ग्रन्थ ना रे, निर्वाहक गुणजाण । प्रथम हर्षसागर सुधी रे, ज्ञानतिलक गुणवंत,
पुण्यतिलक सुवखांणतां रे, हीयडइ हो गई उल्हसंत । अतः इससे यही प्रमाणित होता है कि ये तीनों ही हर्षनिधान के शिष्य थे और कवि ज्ञानतिलक का शिष्य था क्योंकि अन्त में लिखा है--
ढाल चवदमी मन गमी रे, सह रीझया ठाम ठाम,
ज्ञानतिलक गुरु सांनिधे रे, विनयचंद्र कहे आम । इस प्रकार अगरचन्द नाहटा की बात ही उपयुक्त लगती है।' इसका रचनाकाल इस प्रकार बताया गया है--
१. अगरचन्द नाहटा -परंपरा पृ० १०२ ।
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