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मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास श्री देसाई ने इन पद्य रचनाओं का उल्लेख नहीं किया है परंतु उन्होंने कल्पसूत्र स्तवक सं० १७२९ (जिनराज सूरि राज्ये) की सूचना दी है। इन्होंने इस गद्य रचना का उद्धरण नहीं दिया है और न नाहटा जी ने पद्य रचनाओं का उद्धरण दिया है अतः इनके पद्य और गद्य का नमूना देना संभव नहीं हुआ ।'
विद्यासागर--इनसे पूर्व दो विद्यासागर नामक लेखक १७वीं शताब्दी में हो चके हैं जिनमें से प्रथम विद्यासागर विजयदान के शिष्य थे और दूसरे विद्यासागर सुमतिकल्लोल के शिष्य थे। इनका विवरण १७वीं शती के इतिहास (वृहद् इतिहास खण्ड २) में दिया जा चुका है।
प्रस्तुत विद्यासागर आंचलगच्छ के सूरि थे। इन्हें आचार्य पद सं० १७६२ में दिया गया था और सं० १७९३ में इनका स्वर्गवास हुआ था। इन्होंने 'सिद्ध पंचाशिका बालावबोध' की रचना सं० १७८१ में की। इसके मूल लेखक देवचंद सरि थे।
विद्यासागर (दिगम्बर)--आप भट्टारक शुभचंद्र के गुरुभाई और भट्टारक अभयचंद के शिष्य थे। ये दिगम्बर बलात्कारगण सरस्वती गच्छ के साधु और विद्वान् थे। विशेषतया हिन्दी के उत्तम लेखक और जानकार थे । इनकी नौ रचनाएँ प्राप्त हैं जिनकी सूची आगे दी जा रही है--
सोलह स्वप्न, जिन जन्ममहोत्सव, सप्तव्यसन सवैया, दर्शनाष्ठांग विषापहार स्तोत्र भाषा, भूपाल स्तोत्र भाषा, रविव्रत कथा, पद्मावती नी वीनती एवं चंद्रप्रभ वीनती। इनके अलावा कुछ स्फट पद भी प्राप्त हैं जो भाषा एवं भाव की दष्टि से पटनीय हैं। सोलह स्वप्न में उन स्वप्नों का वर्णन है जो तीर्थङ्करों के जन्म से पूर्व प्रायः सभी माताओं ने देखा। जिन जन्म महोत्सव में तीर्थङ्कर के जन्म पर होने वाले महोत्सव का वर्णन किया गया है। इसमें केवल १२ पद्य है। सभी पद्य सवैयाछन्द में है। डॉ० कस्तूरचन्द कासलीवाल ने इन्हें
१. मोहनलाल दलीचन्द देसाई - जैन गुर्जर कवियो, भाग ३, पृ० १६३०
(प्र०सं०) और भाग ४, पृ० ४२७ (न०सं०) । २. वही भाग ५, पृ० ३१६ (न०सं०) और भाग ३ पृ० १६४१ (प्र०सं०)।
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