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(उपाध्याय) विनयविजय दुखी हुए थे, अनुमति नहीं दे रहे थे, उसकी चर्चा इन पंक्तियों में देखिये--
अनुमति नवि पामइ, माय बापनी तेह, लूखइ मनि वसिआ, सिवकुमार परि गेह । पणि केते वरसे माय बाप अभावइं,
दिष्यानि हेति राजनगर मांहि आवई । अन्त में इनके भगिनीपति साह हनुआ के सहयोग से दीक्षा महोत्सव सम्पन्न हो पाया। यह रचना ऐतिहासिक रास माला में प्रकाशित है। उपमिति भव प्रपंच का इन्होंने धर्मनाथ स्तवन के नाम से मरुगुर्जर में लघु रूपान्तरण सं० १७१६ में किया है। इपिथिका और भगवती सूत्र पर इन्होंने सामान्य श्रावकों की सुविधा के लिए हिन्दी में संञ्झाय लिखे हैं। इनकी एक रचना 'शाश्वत जिन भास' के अंत की दो पंक्तियाँ देकर यह विवरण समाप्त कर रहा हूं और निवेदन करता हूँ कि उपाध्याय यशोविजय के वटवृक्ष जैसे विशाल व्यक्तित्व की छाया में इनकी आभा भले कुछ आच्छादित हुई हो पर इनके सर्जक प्रतिभा का अधिक निखार ही हुआ था। पंक्तियाँ इस प्रकार हैं
कीरतिविजय उवझाय केरो, लहीइ पुण्य पसाय,
सासता जिन थुणइ इणि परि, विनयविजय उवझाय । यह रचना विनय सौरभ में प्रकाशित है। श्री पाल रास में दिखाया गया है कि राजा श्रीपाल ने सिद्धचक - अर्हत्, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप नामक नवपद का सेवन करके सिद्ध चक्र की पूजा की थी इसलिए उसे इहलोक में अनुपम समृद्धि और परलोक में परम आनंदमय मुक्ति की प्राप्ति हुई। इसकी विशेषताओं का नमूना देने के लिए इसकी पंक्तियाँ पूर्व खंड में उद्धृत की जा चुकी हैं । नेमि भ्रमर गीता और नेमिनाथ बारहमासा नाहटा संग्रह में है तथा इनका उल्लेख उत्तमचंद कोठारी ने अपनी सूची में भी किया है।
विनयशील--आप गुणशील के शिष्य थे। सं० १७०१ में आपने १. मोहनलाल दलीचन्द देसाई-जैन गुर्जर कवियो, भाग २ पृ० ४-२० और
भाग ३, पृ० ११०३-१११० (प्र० सं०) और भाग ४, पृ० ७.२७ (न०सं०)।
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