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लावण्यचन्द
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तास परंपर अंचल गछपति,
अमरसागर सूरीदा जी, तस आज्ञापालक गीतारथ,
वाचक लक्ष्मीचंदा जी। अर्थात् सोहम् गणधर के अड़तालीसवें पट्टधर आर्यरक्षित द्वारा प्रवर्तित विधिपक्ष की परंपरा में अंचलगच्छपति अमरसागर के ये प्रशिष्य और लक्ष्मीचंद वाचक के शिष्य थे। इसका रचनाकाल इस प्रकार उल्लिखित है
सतर चऊत्रीसे श्रावण सुदि, तेरसि मंगलदायी जी,
सीरोही सहिरे गुरु महिरि, साधुवंदना गाई जी। इनकी एक छोटी रचना 'साधु गण भास' (४ ढाल) भी साधुओं के गुणगान पर ही आधारित है। इसका आदि इस प्रकार है--
साहस धरि घर परिहरी विचरहि जे खगधार, मन अक जिन आणा विषइ, पगि पगि तसि बलिहार रे।
धन धन साधु ते थिर संघयण सुसत्त रे । अंत--जीव जीव इम जोगवि वधति,
गुणि हे नही क्षण विश्राम कि, साधक मुगति समाधि सुं निति,
प्रणमि हे लावण्य सिरिनामि कि ।'
लावण्यविजय गणि-तपागच्छ के साधु भानुविजय इनके गुरु थे। इन्होंने लगभग सं. १७६१ में 'चौबीसी' लिखी जिसका आदि निम्नवत् है
आदि जिनेसर साहिबा, जगजन पूरे आस, लाल रे । करीय कृपा करुणा करो, मनमंदिर करो वास, लाल रे। वीनताई तठा प्रभु, कीधो ज्योति प्रकाश, लाल रे । पंडित भानुविजय तणो, लावण्य मन उल्हास, लाल रे ।
१. मोहनलाल दलीचंद देसाई--जैन गुर्जर कवियो, भाग ३, पृ० १२९०-९१
(प्र०सं०) और वही भाग ५ पृ० ७-८ (न०सं०)।
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