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(उपाध्याय) लक्ष्मीवल्लभ
इसमें इन्हें खरतरगच्छीय क्षेमहर्ष का शिष्य बताया गया है। यह तथ्य ग्रंथों में दी गई गुरुपरंपरा से मेल नहीं खाता, अतः शंकास्पद है।
डॉ० प्रेमसागर जैन ने इनकी चौबीसी, महावीर गौतम स्वामी छंद, दूहाबावनी, सवैया बावनी, भावना विलास, चेतन बत्तीसी, उपदेश बत्तीसी, देशांतरी छंद के विवरण-उद्धरण दिए हैं तथा अभयंकर चौपई, अमरकुमार रास, विक्रमादित्य पञ्चदण्ड चौपई, रत्नहास आदि का भी उल्लेख किया है। इनके अलावा उन्होंने इनकी एक सरस काव्यात्मक कृति नेमिराजुल बारहमासे का वर्णन किया है। इस सरस रचना का एक छन्द उदाहरणार्थ प्रस्तुत करना आवश्यक लगता है; देखें श्रावणमास का वर्णन-- उमरी विकट घनघोर घटा चिहुँ
__ओरनि मोरनि सोर मचायो, चमके दिवि दामिनि यामिनि कुंभय
__भामिनि कुंपिय को संग भायो। लिव चातक पीउ ही पीड़ लइ,
___ भई राज हरी मुंइ देह छिपायो, पतियाँ पै न पाई री प्रीतम की अली,
श्रावण आयो पै नेम न आयो।' इन रचनाओं के विवरणों से प्रकट होता है कि लक्ष्मीवल्लभ जैन साधु और उपदेशक के अलावा हिन्दी, राजस्थानी और संस्कृत के अच्छे कवि भी थे। उन्होंने न केवल संख्या की दृष्टि से पर्याप्त रचनायें की हैं बल्कि गुण की दष्टि से भी उनकी कई कृतियों में पर्याप्त काव्यत्व है, संगीतात्मकता है, तथ्य है और शाश्वत संदेश हैं। इस दृष्टि से विचार करने पर लक्ष्मीवल्लभ १८वीं (वि०) शती के निस्संदेह महाकवि सिद्ध होते हैं।
लक्ष्मी विजय -आप तपागच्छीय विमलहर्ष उपाध्याय>प्रीतिविजय>पुण्यविजय के शिष्य थे। इन्होंने खंभात में ७०९ कड़ी की एक रचना 'श्री पाल मयणासुन्दरी रास' सं० १७२७ भाद्र शुक्ल नवमी को १. डा. प्रेमसागर जैन--हिन्दी जैन भक्तिकाव्य और कवि, पृ० ३०७-३११
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