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लाघाशाह
४४५ इसमें शिवचंद की गुरुपरंपरा बताते हुए कवि ने खरतरगच्छ के जिनदत्त से शिवचंद तक का उल्लेख किया है। यह ध्यान देने की बात है कि कवि स्वयं कडुवा गच्छ के थे किन्तु उन्होंने खरतरगच्छ के एक साधु पर रास सद्भावपूर्वक लिखा। खरतरगच्छ के साधुओं की प्रशंसा भी की है, यथा--
जिनदत्त ने जिनकुशल जी, सूयी हवा सुखकार, तस पद अनुक्रमे जाणीये, जिनवरधमान सूरींद । जिनधरम सूरि पटोधरु, जिनचंद सूरि मुणिंद, शिवचंद सरी जांणिये, देश प्रसीध है नाम ।
खरतरगच्छ सिरसेहरो, संवेगी गुणधाम । इत्यादि अंत--अति आग्रह कीधो हीरसागरै हित आणी,
करी रास नी रचना, साते ढाल प्रमाण । रचनाकाल--
संवत सतर से पंचाणु आसो मास सोहामणो, शुदि पंचमी सुरगुरौवारे ओ रच्यो रास रलियामणो ।
निरवाण भाव उलासा साथे रामनगर मोहे कीऊ,
कहें साहजी लाघो हीर आग्रहे थी रास अह करि दीऊ ।' इनकी एक गद्यरचना भी उपलब्ध है जिसका नाम है--
पृथ्वीचंद्र गुणसागर चरित्र बालावबोध ( सं० १८०७ मागसर, शुक्ल पंचमी, रविवार, राधनपुर )
इसके अंत में कवि की उपर्युक्त गुरुपरंपरा दी गई है, इसकी अंतिम प्रशस्ति परंपरानुसार संस्कृत में है। अंतिम दो पंक्तियाँ निम्नवत् हैं--
राधकेति पूर्वद्रये चातुर्मास स्थितेन च, कटुगच्छेशलब्धेन कृतोऽयं बालबोधकः ।
१. ऐतिहासिक जैन काव्यसंग्रह-पृ० ३२१ । २. मोहनलाल दलीचन्द देसाई--जैन गुर्जर कवियो भाग २५० ४९६-४९८
(प्र०सं०), भाग ३ पृ० १४२१-२२ और १६६८ (न० सं०) तथा वही भाग ५, पृ० १९८-२०१ (न०सं०)।
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