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लब्धिविजय (वाचक)
यह रचना कूर्मापुत्र चरित्र पर आधारित है, यथा-कूर्मापुत्र ना चरित्र थी ओ उधरीओ ओ अधिकार, धरम हीओ धरो ओ, टाली सयल परमाद, भवियण साभंलो अ, धरम हीओ धरो अ, छंग कुडउ विवाद; धरम
गुरुपरंपरा-
पूनिम गछपति राजीद्या अ,
पालइ पंचाचार,
"
श्री लक्ष्मीचंद सूरीसरु अ जंसु दरसन छइ सुखकार । प्रथम शिष्य मुख्य तेहना ओ, वीरविमल मुनींद विनय विवेकई आगला ओ, प्रवर्त्तावक मांहि दीपइ जिमचंद | तेह गुरुनी अनुमति रचिउ रास रसाल, धरम
रचनाकाल -
शिव दरिसनोदधि भू वत्सरइ ओ, भागवा नयर मझारि, अ रास सरस जिकोपभणइ अ, आणी हरष ज जाण, लब्धिविजय वाचक भणइ ओ, तेहनइ कुशल कल्याण । "
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प्रस्तुत लब्धिविजय (वाचक) की प्रथम लब्धिविजय से न केवल गुरु परंपरा ही भिन्न है अपितु दोनों के रचनाकाल में अर्द्ध शताब्दी का लम्बा अंतराल है जिसे देखते हुए यह निश्चित होता है कि ये दोनों भिन्न-भिन्न रचनाकार थे । अतः एक को केवल लब्धिविजय तथा दूसरे को वाचक लब्धिविजय लिखकर अलगाया गया है । इस रचना में कवि ने पार्श्वनाथ की वंदना करते हुए उनके जन्म स्थान वाराणसी को भी स्मरण किया है । प्राचीन जैन साहित्य में बनारस के वाराणसी शब्द का प्रयोग प्रायः मिलता है। इससे इस शब्द की प्राचीनता प्रमाणित होती है ।
लब्धिसागर - खरतरगच्छीय जिनचंदसूरि की माणिक शाखा के कमलकीर्ति 7 सुमतिमंदिर > जयनंदन आपके गुरु थे । इन्होंने सं० १७७० आसो कृष्ण ५, शनिवार को चूडा में अपनी चौपाई ध्वजभुजंगकुमार चौपाई पूर्ण की थी । इसकी अंतिम पंक्तियों में ऊपर दी गई गुरु परंपरा बताई गई है। इसकी अंतिम पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं-
१. मोहनलाल दलीचन्द देसाई -- जैन गुर्जर कवियो, भाग २, पृ० ४५८४५९ (प्र० सं० ) और भाग ५, पृ० २११ - २१२ ( न० सं० ) ।
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