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मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास रचनाकाल
संवत सतर सै अड़तीसे सातम दिन सुजगीसे हो,
मास ताइ वै सित पोष माहे, आगम धुरि अवगाहे हो। चेतन बत्तीसी (३२ कड़ी सं० १७३९) आदि- चेतन चेत रे अवसर मत चूक, सीख सुणे तूं सांची,
गाफल हुई जो दांव गमायौ, तौ करसि बाजी सहु काची। अन्त-- सुवचन अह अमीरस सरिखा, पण्डित श्रवणे पीसी,
सतरह से गुणचाले संवत, बोले राज बत्तीसी। कालज्ञान प्रबन्ध (वैद्यक का ग्रंथ है, इससे कवि के वैद्यक ज्ञान का भी पता लगता है) यह १७८ कड़ी की रचना सं० १७४१ मा० शु० १५, गुरुवार को पूर्ण हुई थी।
नवतत्त्व चौपाई (हिन्दी, सं० १७४७ वैशाख कृष्ण १३, गुरुवार, हिसार)
यह रचना कवि ने हिसार निवासी मोहनदास, ताराचंद और तिलोकचंद के आग्रह पर किया था। इसका रचनाकाल इस प्रकार बताया गया है--- श्री विक्रम तै सत्तर सै, वीते सइतालीस,
तेरसि दिन वैशाख बदि, वार बखाणि वागीस । इसमें जैनागमों में वर्णित नवतत्त्व विचार का हिन्दी भाषांतरण किया गया है।
अभयकुमार चरित्र रास-(दान के विषय में दृष्टान्त रूप से यह रचित है) यह १७ ढाल २५७ कड़ी की रचना है पर इसका रचनाकाल नहीं दिया गया है। गुरुपरम्परा अन्य ग्रंथों जैसी ही दी गई है इसलिए रचना और रचनाकार के बारे में शंका की जगह नहीं है। इसका प्रारम्भ इस प्रकार हुआ है -
श्री आदीसर प्रथम जिन, शांतिकरण श्री शांति, प्रणमु नेमि श्री पास जिण, वीर नमु अकंति ।
१. मोहनलाल दलीचन्द देसाई-जैन गुर्जर कवियो, भाग ४, पृ० ३४८-३५७
(न०सं०)।
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