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मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास ने कविता में अपना उपनाम चन्द्र लिखा है। राम जानकी के अपरिमित गुणों का वर्णन करता हुआ कवि लिखता है ---
राम जानकी गुन विस्तार, कहै कौन कवि वचन विचार, देव धरम गुरु कुं सिर नाय, कहै चंद उत्तिम जग माय । रामराज्य में प्रसन्न धार्मिक जन राम का गुणगान कर रहे हैं
रावन को जीत राम सीता विनीता आये, वरत सुनीत राज षलक सुहावनों; सुष मे वितीत काल दुष को वियोग हाल, सबही निहाल पाप पंथ मैं न आवतो। वाही वर्तमान दीस सब ही सुबुध लोक, सुरग समान सुषभोग मनभावनौ, कोऊ दुषदायी नाहि सज्जन मिलायो मांहि,
सबही सुधर्मी लोक राम गुन गावहीं। इस ग्रन्थ की अनेक प्रतियां विविध ज्ञान भण्डारों में उपलब्ध हैं। इसकी एक प्रति का उल्लेख नागरी प्रचारिणी के बारहवें खोज विवरण में है। इसका अन्तिम दोहा निम्नांकित है ---
जो जाणौं निज जाणं तो वहै जान परवाण,
जाण पणस्यों जाणियै जानपणी परधान ।। उपर्युक्त दोहे की भाषा में प्राकृताभास उत्पन्न करने का कृत्रिम प्रयास है जिससे भाषा में अस्वाभाविक रुक्षता आ गई है। सब मिलाकर यह श्रेष्ठ रचना है और ऐसे नीरस स्थल विरल हैं।
रायचंद II--आप लोकागच्छीय भागचंद >गोवर्धन के शिष्य थे। इन्होंने अवंति सुकमाल चौढालियुं (४८ कड़ी) सं० १७९७ और थावच्चा कुमार चौढालियूं लिखा है। प्रथम रचना का समय स्पष्ट नहीं है, यथा-- १. नागरी प्रचारिणी सभा काशी, हस्तलिखित ग्रन्थों का १२वां त्रैमासिक
खोज विवरण पृ० १२६१ । २. कामताप्रसाद जैन-हिन्दी जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास, पृ० १५९
१६० और डा० प्रेमसागर जैन-हिन्दी जैन भक्तिकाव्य और कवि, प० २३०-२३३ ।
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