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रायचन्द
४१७ रायचन्द-- इस नाम के कई जैन लेखक हो गए हैं। सं० १७०० के आसपास एक रायचन्द नागर' हुए जिन्होंने गीत गोविंदादर्श और लीलावती की रचना की। १७वीं शताब्दी में एक अन्य रायचंद हुए जो गुणसागर के शिष्य थे, जिन्होंने विजयसेठ विजयासती रास की रचना सं० १६८२ में की, इनका उल्लेख मरुगुर्जर जैन साहित्य के बृहद् इतिहास खण्ड दो में हो चुका है। १९वीं शती के पूर्वार्द्ध में भी एक रायचन्द नामक साहित्यकार हुए हैं जिन्होंने गौतम स्वामी रास, कलावती चौपई, ऋषभचरित आदि पचीसों ग्रन्थ लिखे हैं। इनका विवरण यथास्थान १९वीं शताब्दी में दिया जा सकेगा। शायद इन्होंने ही अवयवी शकुनावली की रचना सं० १८१७ नागपुर में और कल्पसूत्र हिन्दी भाषा की रचना सं० १८३८ बनारस में की। कहा जाता है कि यह ग्रंथ शिवप्रसाद सितारे हिंद के किसी पूर्वज ने लिखवाया था और राजासाहब ने उसे काव्य भाषा नाम से प्रकाशित कराया था। २०वीं शताब्दी के सिद्ध पुरुष रायचन्द ने अध्यात्म सिद्धि की रचना की है। इन्हें महात्मा गांधी अपने आध्यात्मिक गुरु की तरह मानते थे। इनकी भी चर्चा यथास्थान की जायेगी। सारांश यह कि रायचन्द इतने लोगों का नाम है कि उनकी रचनाओं में घालमेल होना सहज सम्भव है।
इन सबसे भिन्न १८वीं शताब्दी के प्रसिद्ध साहित्यकार रायचन्द का विवरण यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। ये मरुगुर्जर (हिन्दी) के श्रेष्ठ कवि हैं। इन्होंने सं० १७१३ में 'स्रीताचरित' की रचना की जो यद्यपि रविषेण के पद्मपुराण पर आधारित है पर कवि ने अपनी प्रतिभा से इसे मौलिक रचना की तरह सरस बना दिया है। इसमें सीता के चरित्र की प्रधानता है। नारी भावों की व्यंजना सुन्दर ढंग से हुई है। वाह्य एवं अन्तःप्रकृति का इन्हें सूक्ष्म ज्ञान प्रतीत होता है, भाषा सशक्त है, इसलिए जैन साहित्य में यह ग्रन्थ महत्वपूर्ण है। इसमें ३६०० पद्य हैं। मिश्रबन्धू ने भी इसका रचनाकाल सं० १७१३ ही बताया है।
संवत सतरह तेरोतरै, मगिसर ग्रंथ समापति करै। यह रचना श्रीमद् रायचन्द नामक ग्रंथ में प्रकाशित है । इस कवि १. मिश्रबन्धु-मिश्रबन्धु विनोद भाग २, पृ० ४२५ । २. वही
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