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मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास बाद में शांतिनाथ के उदात्त चरित्र का चित्रण किया गया है। इसका प्रारम्भ इस प्रकार हुआ है--
सकल श्रेय वरदायिनी, मुनिवर वंदित जेह,
जिन पद लक्ष्मी नितनमुं, आणी अधिक सनेह । यह रचना जैनकथा रत्नकोश भाग ८ में प्रकाशित है।
लक्ष्मीसागर सूरि निर्वाण रास सं० १७८८ के कुछ ही पश्चात् रची गई है। आदि- श्री युगादि जिणवर तणा, पद प्रणमुं कर जोडि,
भविमन वंछित पूरवा, कल्पतरू नी जोड़ि।
तपगछ नायक जिनवरू श्री लक्ष्मीसागर सूरि;
गुण तेहनां गास्युं घणां, आणी आनंद पूरि। इसमें लक्ष्मीसागर सूरि का सादर वंदन-स्मरण किया गया है। यह रास जैन ऐतिहासिक रासमाला भाग १ (सं० मोहनलाल दलीचंद देसाई) में प्रकाशित है।'
चौबीसी सं० १७७८ से पूर्व महसाणा में लिखी गई । इसकी अंतिम पंक्तियाँ उदाहरणार्थ प्रस्तुत हैं -
इम भुवनभासन दूरितनासन विमल शासन जिनवरा, भवभीति चूरण आसपूरण सुमतिकारण संकरा । में थुण्या भगते विविध जुगतें नगर महिसाणें रही,
श्री सुमतिविजय चरण सांनिधि, रामविजय जयसिरी लही। २० विहरमान स्तवन का आदि-~
सुणि भवि प्राणी रे, श्री सीमंधर जिनध्यावो, प्रथम प्रभू विचरत विदेहे, गुण तस अहनिसि गावो ।
श्री सूमति सुगुरु सेवा शुद्ध मनथी करतां सुजस ऊपावो। वाचक रामविजय कहे जगमां जीत निसान बजावो।
१. सम्पादक मोहनलाल दलीचन्द देसाई-जन ऐतिहासिक रासमाला भाग १ ।
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