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राजविजय
३९७ इसमें शील का महत्व दर्शित है, यथा
च्यार सम तो पिण इहां, शील तणो अधिकार, शील लता सुख पामीयो, शील थकी सुखकार । ब्राह्मी चंदन बालिका सारिखी गुण गेह,
सरस कथा श्रोता सुणो आणी मन में अह । गुरुपरम्परान्तर्गत उपरोक्त गुरुओं का सादर स्मरण प्रस्तुत रास में किया गया है। रचनाकाल--
संवत संयम गगन अने ग्रह, अ संवच्छर जाणो जी, आसो सुदि दसमी रविवारे, पूरण ग्रन्थ प्रमाणो जी। श्री श्रीविजयदया सूरि राजे, शांतलपुर चोमासो जी, शांतिनाथ जिनवर प्रासादे, रास रच्यो उल्लासें जी । ढाल अड़त्रीस मी पूरी भाखी, राजविजय हित आंणी जी, मनथिर राखी सतीय तणा गण सांभलज्यो नरनारी जी।
लीला लखमी अविचल लहस्यो, जिम गगने ध्र तारा जी। यह कथा शीलतरंगिणी से ली गई है जिसमें शीलसुंदर और सुरसुन्दरी का आख्यान है, कवि इस सम्बन्ध में लिखता है--
शीलसुंदर सुरसुंदरी नारी, हुइ अवसर लटकाली जी, तेह विदेह थी मोक्षे जास्ये, सूधो संजम पाली जी। सतीय तणा गुण में तो गाया, पावन कीधी जीहा जी, उत्तमना गण वर्णन कीजे, धन धन छे दी जीहाजी। शील तरंगिणी माहे मे छे प्रगट पणे अधिकारो जी, सरस कथा अ ठामे ठामे, वीजा प्रकरण मझारो जी।'
राजसार--आप युगप्रधान जिनचन्द्र सूरि की परम्परा में धर्मसोम के शिष्य थे। इन्होंने सं० १७०२ में पुण्डरिक कुंडरिक सन्धि अहमदाबाद में, सं० १७०४ में कुलध्वजकुमार रास हाजी खानडेरा में और सं० १७०९ में धन्यचरित्र चौपई की रचना की। श्री देसाई ने १. मोहनलाल दलीचन्द देसाई--जैन गुर्जर कवियो, भाग ३, पृ० १४६५-६७
(प्र०सं०) और वही भाग ५, पृ० ३४७-३४९ (न०सं०)। २. श्री अगरचन्द नाहटा--परंपरा, पृ० १०७ ।
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