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गुरुपरम्परा-
मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
श्री खरतर जिनसुख सूरिंदा, प्रतपो जिम रविचंदा जी, वाचक हरकीति गुणवृन्दा, राजहर्ष सुखकंदा जी । तासु सीस वाचक पदधारी, राजलाभ हितकारी जी, तासु चरण कमल अनुचारी, राजसुन्दर सुविचारी जी । गुरुमुखि ढाल सुणी जे गावे, ते परमारथ पावे जी, भणतां गुणतां वधते भावै, आरत दूरे जावै जी ।
राजसोम -- ये खरतरगच्छ के समयसुन्दर के प्रशिष्य एवं जयकीर्ति के शिष्य थे । इन्होंने गद्य और पद्य दोनों साहित्य- रूपों में साहित्य सृजन किया है । इन्होंने कल्पसूत्रान्तर व्रतचवदह स्वप्न का विवरण मरुप्रधान पुरानी हिन्दी में सं० १७०६, जैसलमेर में लिखा । इन्होंने सं० १७१५ में श्रावक आराधना भाषा तथा पंचसंधि व्याकरण बाला० और इरियावही मिथ्या दुष्कृत बाला० भी लिखा । "
पद्य में आपने अनादिविचार चौपाई सं० १७२९ सांगानेर, पद्मप्रभ स्तवन और सूसढ़ रास नामक वृहद् काव्य लिखा है । इनकी एक अन्य रचना 'उंदर रासो' भी प्राप्त है, किन्तु इनकी किसी रचना का उद्धरण प्राप्त नहीं हो सका है । श्री देसाई ने इनकी गुरपरम्परा में 'समयसुन्दर, हर्षनन्दन और जयकीर्ति का उल्लेख किया हैं । उन्होंने भी इनकी श्रावकाराधना ( भाषा) और इरियावही मिथ्या दुष्कृत स्तवन बालावबोध का मात्र नामोल्लेख किया है ।
राजहर्ष - खरतरगच्छ के आचार्य कीर्तिरत्न सूरि शाखा के उपाध्याय ललितकीर्ति आपके गुरु थे । इन्होंने 'थावच्या सुकोशल चौपई सं० १७०३ या १७०७ में लिखी, इसी प्रकार श्री नाहटा ने इनकी दूसरी रचना अरहन्ना चौपई का भी रचनाकाल सं० १७२४ और १७३२ दोनों बताया है । उन्होंने इनकी एक अन्य कृति नेमिफाग का भी उल्लेख किया है ।
१. अगरचन्द नाहटा -- परंपरा पृ० १०९-११०।
२.
मोहनलाल दलीचन्द देसाई -- जैन गुर्जर कवियो, भाग ३, पृ० १६२२ ( न०सं० ) और वही भाग ४ पू० १४९ ( न०सं० ) ।
४, अगरचन्द नाहटा - परंपरा पृ० १०७
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