________________
४५०
मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास दिया। सं० १७३२ जूनागढ़, में इन्हें सूरिपद देकर नाम विजयरत्न रखा गया। राणा अमरसिंह, रावल खुमाण सिंह और आजमशाह आदि इनका सम्मान करते थे। जोधपुर के महाराज अजीत सिंह के ये विशेष आदर भाजन थे। यह रचना विजयक्षमा सूरि के समय हुई। इनका स्वर्गवास सं० १७७२ भादो शुक्ल अष्टमी को हुआ था। इसके आदि में लिखा है--
गास्युं गिरुआ गछपति, श्री रत्नविजय सूरींद । और कलश में कहते हैं--
विजयरत्न सूरिंद सुन्दर गच्छ गयण दिवायरो, जगचित्तरंजन कुमतिभंजन कुल पयोज कलाधरो। संपत्तिदाता सुखविधाता कुसलवल्लि पयोहरो,
तस चरण सेवक रामविजये गायो गुरु गुरु जयकरो।' चौबीसी-आदि--हां रे आज मलिओ मुझने तीन भुवन नो नाथ जी, अन्त-- आज सफल दिन माहरो ओ,
भेट्यो वीर जिणंद के, त्रिभोवन नो धणी । यह रचना चौबीसी-बीसी संग्रह पृ० ४५२-४६९ और स्तवन मंजूषा में भी प्रकाशित है। इन कृतियों की भाषा को प्राकृताभास रूप देने के लिए काफी तोड़ा मरोड़ा गया है यथा दिवायरो, पयोहरो, गयण आदि क्रमशः दिवाकरो, पयोधर और गगन के लिए प्रयुक्त शब्द हैं ।
रामविजय(रूपचंद)-आप खरतरगच्छीय प्रसिद्ध कवि जिनहर्ष> सुखवर्द्धन>दयासिंह के शिष्य थे। इनका जन्म नाम रूपचंद था और ये ओसवाल आंचदिग्या गोत्र के वैश्य थे। आपका जन्म सं० १७४४ में और दीक्षा सं० १७५१, वैशाख कृष्ण द्वितीया को जिनचंद्र सूरि द्वारा हुई। उसी समय इनका दीक्षा नाम रामविजय पड़ा था। अपनी रचनाओं में ये अपना नाम रामविजय और रूपचन्द दोनों दिया करते थे। आपने गद्य के क्षेत्र में अधिक कार्य किया और अनेक भाषा टीकायें लिखीं। ये व्याकरण एवं ज्योतिष के अच्छे जानकार
१. सम्पादक मुनि जिनविजय-जैन ऐतिहासिक गुर्जर काव्यसंचय पृ० ३७-४४ २. मोहनलाल दलीचंद देसाई-जैन गुर्जर कवियो, भाग २, पृ० ५२१-५२३
और भाग ३, पृ. १४३४ तथा वही भाग ५, पृ० २८१-८४ (न०सं०)।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org