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राजहर्ष
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श्री देसाई ने 'थावच्या शुकसेलग चोपाई' नाम बताया है, यह रचना २५ ढाल की है। इसका रचनाकाल देसाई ने सं० १७०३ मागसर, शुक्ल १३ सोमवार और रचनास्थान बीकानेर बताया है, इसके प्रमाण में उन्होंने संबंधित पंक्तियाँ उद्धृत की हैं, यथा
संवत सतरइ सँ वरसे त्रिोत्तरइजी बीकानेर मझारि, मोटो संघ सदा श्री बीकानेर नो जी जीवदया प्रतिपाल ।
इसमें गुरुपरंपरान्तर्गत कीर्तिरत्न, हर्षविशाल, हर्षधर्म, साधुमंदिर > विमलरंग, लब्धिकल्लोल और ललितकीर्ति का वंदन किया गया है । इसकी अन्तिम पंक्तियों में राजहर्ष ने अपने गुरुभाई पुण्यहर्ष का भी उल्लेख किया है, यथा
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जेहन भाई पुण्यहरष विद्यानिलो जी सहुजाण संसार, तेही सांनिधि लहिरि कीधी चौपाई जी, राजहरष सुखकार
आपकी दूसरी रचना अर्हन्नक चौपई का रचनाकाल देसाई ने सं० १७३२ महा शुदी १५ गुरुवार और स्थान दंतवासपुर बताया है, संबंधित पंक्तियाँ इस प्रकार हैं
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तिहां थकी उद्धर्योओ, सत्तर से बत्तीस,
माह सुदी पूनमे ओ, गुरु पुष अह जगीस । दंतवासपुर सुदीपतो ओ, जिहाँ चितामणि पास,
सूधे मन सेवता अ, अविचल लीलविलास ।
यह रचना उत्तराध्ययन पर आधारित है, यथाआगम उत्तराध्ययन ना टीका छे परबंध,
कथा चोथी कही ओ, वीय अज्जयण संबंध | इसमें अरहन्ना ऋषि की कठिन साधना का वर्णन किया गया है-अरहन्ना रिषि वंदीये ओ, लघुवय चारित पात, कठिन किरिया करी ओ, कंचन कोमल गात ।"
इसकी प्रारंभिक पंक्तियाँ आगे दी जा रही हैं
श्री फलवधि प्रणमु सदा, परतखि पारसनाथ, सुखदाइक सांचोधणी, सहू बोले ससमाथ |
१. मोहनलाल दलीचन्द देसाई -- जैन गुर्जर कवियो, भाग ४, पु० ७१-७४
( न० सं० ) ।
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