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मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
वीर २७ भवस्तव की रचनातिथि मोहनलाल दलीचन्द देसाई ने कार्तिक शुक्ल ११ बताई है किन्तु उपरोक्त उद्धरण में स्पष्ट ही भाद्र मास का उल्लेख है ।
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हरकीर्ति का स्वर्गवास जोधपुर में सं० १७२९ में चतुर्मास के समय हुआ, उसी स्थान पर आपकी पादुका स्थापित की गई, उसी स्थापना के समय राजलाभ ने दो गीत लिखे थे । एक है 'हीरकीर्ति स्वर्ग गमन गीतम् ' दूसरी रचना गुरु स्तुति है उसके आरम्भ की पक्ति है
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पदमहेम गुरु प्रवर सदा सेवक सुख आप, दानराज दिल साच सेवतां संकट कापै ।
अन्त- इम ऋद्ध वृद्धि आणंद करो सुख संतति द्यो संपदा, राजलाभ कहे गुरुजी हुज्यो सेवक नुं सुप्रसन्न सदा । " यह कुल दो ही पद्य का गीत है ।
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राजविजय -- ये तपागच्छ के प्रसिद्ध आचार्य विजयदेव सूरि की शिष्य परम्परा में ऋद्धि विजय > सुख विजय > तिलकविजय 7 हर्षविजय के शिष्य थे । विजयदेव या विजयदया का सूरित्व काल सं० १७८५ से १८०९ तक था । राजविजय की एक बड़ी रचना 'शीलसुन्दरी रास' है जो ३८ ढालों में बद्ध ८५६ कड़ी की है । इसकी रचना सं० १७९० आसो शुक्ल दसमी, रविवार को सांतलपुर में पूर्ण हुई। इसके प्रारम्भ में परब्रह्म परमात्मा की स्तुति की गई है, यथा
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त्रिहु जग नो शंकर अछे, तीण गुण करी हीन, अहवुं जे कोइ रूप छे, नभीये तस थइ दीन । परब्रह्म परमात्मा, शुद्ध परम शुभ रूप, अनुभव विण किम वेइये आप अरूपी रूप । कवि पर रहस्यवादी भक्ति-परम्परा का प्रभाव परिलक्षित होता है, यथा
करी लक्ष, ने प्रत्यक्ष ।
भविजन ज्ञान रयण उद्योत, उदयी अनुभव ज्योत ।
१. ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह 'हीरकीर्ति स्वर्गगमनगीतम्' |
अगणित गुण गण जेहना, नवी सके
अनुभव सर पंकज समा, मनमन्दिर प्रगट्यो हवे, घट तट स्थिति न्य लख्यो,
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