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मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
अलावा कुछ स्फुट गीत और पद भी मिले हैं। बावनगजा गीत में इनके द्वारा सम्पन्न चूलगिरि की संघयात्रा का वर्णन किया गया है । यह यात्रा सं० १७५० पौष शुक्ल २ मंगलवार को सम्पन्न हुई थी,
यथा
संवत सतर सतवनों पोस सुदि बीज भौमवार रे, सिद्ध क्षेत्र अति सोभतो तेनि महिमानो नहि पार रे । श्री शुभचन्द्र पट्टे हवी, परखा वादि मद भंजे रे, रत्नचंद्रसूरिवर कहैं, भव्य जीव मनरंजे रे ।
चिंतामणि गीत में अंकलेश्वर के मंदिर में विराजमान पार्श्वनाथ की स्तुति की गई है । आपका रचनाकाल १८वीं शताब्दी का द्वितीय और तृतीय चरण निर्धारित किया गया है । आप साहित्य के अच्छे विद्वान् और स्वयं सर्जक साहित्यकार थे ।
रत्नजय--ये खरतरगच्छीय रत्नराम के शिष्य थे। इन्होंने राजस्थानी गद्य में ४ भाषा टीकाएँ लिखीं जिनमें ज्ञातासूत्र टबा १३५०० श्लोकों का है । इसके अतिरिक्त कल्पसूत्र बालावबोध, प्रतिक्रमण टब्बा और योग चिंतामणि बालावबोध' भी प्राप्त है । इन गद्य रचनाओं में प्रयुक्त गद्य के नमूने उपलब्ध नहीं हो सके ।
रत्नराज ( उपा० ) - खरतरगच्छीय जिनचंद्रसूरि > रत्ननिधान > रत्नसुन्दर के शिश्य थे । इन्होंने २२ अभक्ष निवारण संज्झाय (२७ कड़ी) सं० १७३९ से पूर्व ही किसी समय लिखा था । इसकी प्रारंभिक पंक्तियाँ इस प्रकार हैं-
प्रणमुं भावइ श्री अरिहंत, केवल ज्ञान करी दीपंत,
तेहना वचन भला चित धरी, श्रावक नइ हित जाणी करी । उभयकाल पडिकमणउ करइ, जीवदया चित्त सूधी धरइ, श्रावक समकित पालइ सार, जाणी अभक्ष करइ परिहार | इस सांप्रदायिक रचना में बाईस प्रकार के अभक्षों का वर्णन करके अन्त में कवि कहता है
ओ सेवाथी भमइ संसार, नरक तणा दुख अधिक प्रकार, ओ विरमंता सुख निरवाणि, अहवी श्री जिणचंद्र नी वाणि ।
१. अगरचन्द नाहुदा -- परंपरा, पृ० ११० ।
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