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________________ ३८६ मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास अलावा कुछ स्फुट गीत और पद भी मिले हैं। बावनगजा गीत में इनके द्वारा सम्पन्न चूलगिरि की संघयात्रा का वर्णन किया गया है । यह यात्रा सं० १७५० पौष शुक्ल २ मंगलवार को सम्पन्न हुई थी, यथा संवत सतर सतवनों पोस सुदि बीज भौमवार रे, सिद्ध क्षेत्र अति सोभतो तेनि महिमानो नहि पार रे । श्री शुभचन्द्र पट्टे हवी, परखा वादि मद भंजे रे, रत्नचंद्रसूरिवर कहैं, भव्य जीव मनरंजे रे । चिंतामणि गीत में अंकलेश्वर के मंदिर में विराजमान पार्श्वनाथ की स्तुति की गई है । आपका रचनाकाल १८वीं शताब्दी का द्वितीय और तृतीय चरण निर्धारित किया गया है । आप साहित्य के अच्छे विद्वान् और स्वयं सर्जक साहित्यकार थे । रत्नजय--ये खरतरगच्छीय रत्नराम के शिष्य थे। इन्होंने राजस्थानी गद्य में ४ भाषा टीकाएँ लिखीं जिनमें ज्ञातासूत्र टबा १३५०० श्लोकों का है । इसके अतिरिक्त कल्पसूत्र बालावबोध, प्रतिक्रमण टब्बा और योग चिंतामणि बालावबोध' भी प्राप्त है । इन गद्य रचनाओं में प्रयुक्त गद्य के नमूने उपलब्ध नहीं हो सके । रत्नराज ( उपा० ) - खरतरगच्छीय जिनचंद्रसूरि > रत्ननिधान > रत्नसुन्दर के शिश्य थे । इन्होंने २२ अभक्ष निवारण संज्झाय (२७ कड़ी) सं० १७३९ से पूर्व ही किसी समय लिखा था । इसकी प्रारंभिक पंक्तियाँ इस प्रकार हैं- प्रणमुं भावइ श्री अरिहंत, केवल ज्ञान करी दीपंत, तेहना वचन भला चित धरी, श्रावक नइ हित जाणी करी । उभयकाल पडिकमणउ करइ, जीवदया चित्त सूधी धरइ, श्रावक समकित पालइ सार, जाणी अभक्ष करइ परिहार | इस सांप्रदायिक रचना में बाईस प्रकार के अभक्षों का वर्णन करके अन्त में कवि कहता है ओ सेवाथी भमइ संसार, नरक तणा दुख अधिक प्रकार, ओ विरमंता सुख निरवाणि, अहवी श्री जिणचंद्र नी वाणि । १. अगरचन्द नाहुदा -- परंपरा, पृ० ११० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002092
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages618
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size23 MB
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