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रत्नराज
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रतन निधान सुगुरु उपदेश, अ अधिकार काउ सविशेष, रतनराज कहइ उवझाय, लाभ घणउ भणतां सिज्झाय ।'
रत्नवर्द्धन-खरतरगच्छ की जिनभद्रसरि शाखा में शिवनिधान > मति सिंह> रत्नजय के शिष्य थे। आपने 'ऋषभदत्त चौपई' सं० १७३३ विजयदशमी, मंगलवार को संखावती में पूर्ण किया। इसकी प्रारम्भिक पंक्तियाँ निम्नांकित हैं--
वामानंदन परगडो, तेवीसमों जिनराज; पारसनाथ परसाद थी, फलइ वांछित काज । दान सीयल तप भावना, जिणवर भाख्या चार;
तउपणि इहाँ वषाणीय, सील तणुं अधिकार । शील का महत्व प्रतिपादित करने के लिए रत्नवर्द्धन ने ऋषभदत्त रूपवती की कथा दृष्टान्त रूप में प्रस्तुत की है । यथा,
ऋषभदत्त रूपवति तणु, भाख्यो प्रबन्ध रसाल,
भाव धरीजे सांभले, फले मनोरथ माल । रचनाकाल
रत्नवर्द्धन शिष्य विनय करी अह रच्यो अधिकार,
संवत सतर तेत्रीस हे, विजयदसमी भृगुवार। . गुरुपरम्परा बताते समय लेखक ने जिनचन्द्र, जिनदत्त, जिनप्रभ आदि दादा गुरुओं के अलावा उपरोक्त परम्परा का वर्णन किया है । यह रचना संखावती के कोठारी पहिराज के अनुज विरागदास के आग्रह पर आपने की थी। इसकी अन्तिम पंक्तियाँ प्रमाण स्वरूप प्रस्तुत हैं
अह प्रबंध आग्रह करी, बखाण्यो मतिसार, वटशाखा जिम विस्तरो, पुत्र कलत्र परिवार । भणे गुणे जे सांभले, नरनारी ओ रास,
रलीरंग वधामणा, पूरी मन की आस । १. मोहनलाल दलीचन्द देसाई-जैन गुर्जर कवियो, भाग ३ पृ० १३३१-३२
(प्र० सं०) और भाग ५ पृ० ३०-३१ (न०सं०) २. अगरचन्द नाहटा-परंपरा प० १०८ ।। ३. मोहनलाल दलीचन्द देसाई-जैन गुर्जर कवियो, भाग ३, पृ० १२८४-८६
(प्र. सं०) और भाग ५, पृ० ३ (न०सं०)।
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