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मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास अन्त- सतरे वाणवै संवते जीलो, सपरिवार श्रीकार;
अवसर जाणी आपणी जीलो, महिर करी नितमेव हो।
निज सेवक रुधनाथ ने जी, सुखदायक द्यो सेवजी । दूसरे स्तव का प्रारम्भ
धींग धवले मुझ धरतां ध्यान, आपीय दरसण आपरे, अन्त-- सतर संवत तणे बाणवे सार, चैत्र पुनिम निस चोपं सु,
सिद्धि योगे लह्यो दरस श्रीकार, हरष थयो मुझ हीयडे । तृतीय स्तव का आदि--
सबलो थलवट देश सुहावो हो, गोडीया राय जी, अन्त- नितनित त्रिविध त्रिविध सिरनामी हो,
परचो पामी हो गावे रुधपति गणी। आपकी एक अन्य रचना 'सुगुण बत्तीसी' का भी आगे आदि और अन्त दे रहा हूं। आदि- सुगुण बुढापो आवीयो, लखीयो नही भाई,
रात दिवस धन्धे रह्या, केई कीध कमाई। अन्त- सुगुणां ने समझावणी, वत्तीसी अह,
पाठक श्री रुधपति कहै, सुणिज्यो ससनेह ।' इन रचनाओं में कवि ने अपना नाम रुधपति दिया है जो रघुपति का वर्णविपर्यय होकर मुखसुख की दृष्टि से बन गया है।
यद्यपि इनकी प्रमुख रचनाएँ उन्नीसवीं शताब्दी की हैं, फिर भी आपकी कुछ चुनी पद्य रचनाओं का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत किया जा रहा है
मंदिरेण चौपाई (सं० १८०३) चौमासा, केसरदेसर, इसमें खरतरगच्छ के आचार्य जिनसुख और शिष्य विद्यानिधान का वंदन किया गया है । रचनाकाल इस प्रकार बताया गया है--
शिवलोचन शिवसिघ शशि, संवत अ सुविचारो रे,
प्रथम दिवस लघुकलप ने अपूरण अधिकारो रे । १. मोहनलाल दलीचन्द देसाई-जैन गुर्जर कवियो, भाग ५, पृ० ३४२-३४७
(न०सं०)।
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