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भोजसागर
यह निस्संकोच कहा जा सकता है कि भूधरदास १८वीं शती के अंतिम पाद के सशक्त कवियों में अग्रगण्य थे। प्रारंभ में इनके जैन शतक की चर्चा की गई है। इस विवरण का समापन भी जैनशतक की इस चेतावनी के साथ किया जा रहा है---
जौ लों देह तेरी काह रोग सो न छेरी जौ लों जरा नही नेरी जासौ पराधीन परि है। तौं लो मित्र मेरे निज कारज संवार लेरे, पौरुष थक जो फेर पीछे कहा करि है । अहो आग लागै जब झोपरी जरन लागी;
कुवाँ के खुदाये तब कौन काज सरि है ।' आग लगने पर कुवाँ खोदना, हिन्दी क्षेत्र का लोक प्रचलित मुहावरा है। इसका कितना प्रभावी प्रयोग उपरोक्त पंक्ति में किया गया है। ऐसे अनेक संग्रहणीय सुभाषित पद्य इनकी रचनाओं में मणि रत्नों के समान जगमगा रहे हैं।
आगरा ब्रजभाषा क्षेत्र का प्रमुख नगर है। १८वीं शती में काव्य भाषा व्रजभाषा थी, इसलिए भूधरदास खंडेलवाल के लिये व्रजभाषा हिन्दी में रचनाकार्य सुकर था अतः उन्होंने सशक्त भाषा तथा समृद्ध काव्य कौशल का प्रयोग करके अपनी भक्ति और शांतरस की रचनाओं को समस्त जैन साहित्य में विशिष्ट स्थान का अधिकारी बना दिया है।
भोजसागर- २ आप तपागच्छीय साधु विनीतसागर के शिष्य थे। आपने रत्नशेखर सूरि कृत (सं० १५१६) आचार प्रदीप पर सं० १७९८ ज्येष्ठ कृष्ण १०, मंगलवार को एक बालावबोध लिख कर पूर्ण किया। इसे इन्होंने 'टब्बार्थ' कहा है। यह टब्बार्थ भोजसागर ने रूपविजय गणि के आग्रह पर लिखा था। इसमें लेखक ने विजयदया सूरि के पश्चात् विनीतसागर की वंदना की है। इसके गद्य का नमूना नहीं मिला। १. डा० प्रेमसागर जैन--हिन्दी जैन भक्तिकाव्य और कवि, पृ० ३३५-३४९ २. मोहनलाल दलीचन्द देसाई - जन गुर्जर कवियो, भाग २, पृ० ५९३,
भाग ३, पृ० १६४५-४६ (प्र० सं०) और भाग ५, पृ० ३६२-३६३ (न०सं०)।
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