________________
मानविजय
अंजना तणा गुण गायतां रे, मंगलीक संपद थाय, श्री देवविजय उवझायनो रे, बुध मानविजय गुण गाय रे,
कर्म न छूटइ। आपकी दूसरी रचना विक्रमादित्य चरित्र (छः उल्लास, ९२ ढाल, २८६५ कड़ी) सं० १७२२ (२३, ३२) ? पोष सुदी ८, बुधवार को खेमता गाँव में पूर्ण हुई। इसमें रचनाकाल इस प्रकार है--
संवत १७२२ सज (संजम ?) कर गुण ने, वर्ष तणो परिमांणो जी। पोस शुकल तीथी अष्टमी दीवसे, बुधवासर गुण वाणो जी।
श्री विजय धर्म (प्रभ ?) सूरीसर राजे, गाम खेमते गुण गायो जी। श्री संघ केरां वयण सुणी ने, मालवपति हूलरायो जी। विक्रमनप जिम महीतल मोटो, तिम तमे श्रोता सत धरज्यो जी, अधिको ओछो भाष्यं जो होये,
वक्ता सधारी सुध करज्यो जी।' इसके रचनाकाल में संजम = १७, कर = २, गुण =३ का प्रयोग इस प्रकार है, सं० १७२३ या १७३२ आता है किन्तु सं० १७२२ या २३ अथवा ३२ भी हो सकता है । इसमें मालवा के प्रसिद्ध नृपति विक्रमादित्य का आख्यान है जिसके माध्यम से सत्य का महत्व प्रतिपादित किया गया है। __ श्री देसाई ने खरतरगच्छ के प्रसिद्ध आचार्य जिनराजसूरि के शिष्य मानविजय को पाण्डव चरित्र रास (सं० १७२८ आसो बदी २ रवि, मेड़ता) का भ्रमवश रचनाकार बताया था, किन्तु यह रचना उनके शिष्य कमलहर्ष की है जैसा निम्न उद्धरण से प्रकट होता है-- १. मोहनलाल दलीचन्द देसाई---जैन गुर्जर कवियो, भाग २, पृ० २०९-१०; ____ भाग ३, पृ० २१० (प्र०सं०) और भाग ४, पृ० २७५-७७ (न०सं०)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org