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मेरुलाभ
वदति तास सीस दो बंधव मेरु पदम मनाभाओ, चंदकला नामइ ओह चउपइ, सगवटि कीओ समुदाओ । रचनाकाल - संवत सतर सय ऊपरि सारइं वेद संख्याब्द विधा ओ, मगसिर मास वदि अठमि सुरगुरु दिनई सुहाओ । मुनि महाव जी कहि महियलि मां ओ, रवि दूतांहि रहाओ ।" इस रचना के निर्माण में मेरुलाभ का बौद्धिक सहयोग उनके गुरुभाई पद्मलाभ ने भी किया था ।
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मेरुविजय - तपागच्छीय आचार्य विजयदानसूरि > पंडित गोप जी गणि> रंगविजय गणि के शिष्य थे । आपने वस्तुपाल तेजपाल के विरुद पर आधारित ऐतिहासिक रास 'वस्तुपाल तेजपाल रास' सं० १७२१ चैत्र शुक्ल द्वितीया, कानडी बीजापुर में पूर्ण किया । इसका आदि अग्रलिखित है
आदि-सकल जिनेसर पयनमी, समरी सरस्वती माय, पंचतीथी जिनवर नमुं मनवंछित सुख थाय । आदे आदि जिनवर नमुं युगल्याधर्मं निवार; मरुदेवी ओ जनमीओ प्रथम जिन अवतार | तदुपरांत शांति, नेमि, पास और वीर जिन की स्तुति के बाद पुनः सरस्वती की वंदना की गई है -
ब्रह्माणी ब्रह्मवादिनी, कविजन केरी माय, वाणी आपे निर्मली वस्तुपाल गुण गाय । वली तेजपाल अ क्यों हुआ किम सत्यजुग नाम,
धर्म करण शीशी करी कहुं भाय ताय तस ठाम ।
इस रास में अकबर प्रतिबोधक हीरविजय सूरि से लेकर विजयपाल, विजयानंद, गोपजी, रंगविजय आदि का सादर स्मरण विस्तार पूर्वक किया गया है ।
ग्रन्थ रचनाकाल --
१७२१ संवत सत्तर एकवीस कहु चैत्र शुक्ल बीज सारो रे, कानडी बीजापुर सुख लही, रास रच्यो बुधवारो रे ।
१. मोहनलाल दलीचन्द देसाई - जैन गुर्जर कवियो, भाग २, पृ० १७१-१७३ (प्र०सं० ) और भाग ४, पृ० ८० - ८२ ( न०सं० ) ।
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