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मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बहद् इतिहास रचनाकाल और स्थान
सत्तरसें से (,) तालीस में म, तिहाँ कीधो चउमास, ला। सद्गुरु नो परसाद थी म, पूगी मननी आस, ला ।
नगर भलं पद्मावती म, मरुधर देश मझार, धर्मनाथ परसाद थी म, पूजा सत्तर प्रकार । दिग्पट कथाकोस थी रचीओ अ अधिकार,
अधिको ऊछो भाषीयो, मिच्छा दुक्कड़ सार । इसे कठीयार कानडरी चौपाई भी कहते हैं।' इसकी अंतिम पंक्तियाँ ये हैं--
नवमी ढाल सोहामणी जी म० गोड़ी राग सुरंग,
मानसागर कहे सांभलो दिन दिन वधतो रंग। सुभद्रा रास (४ ढाल सं० १७५९ वच्छराजपुर) आदि- सरसति सामिणि वीनवं आपज्यो अविरल वाणी रे,
सीयल तणो महिमा कहुं सांभलो चतुर सुजाण रे । इसमें भी शील का माहात्म्य ही समझाया गया है। इसका रचनाकाल इस प्रकार कहा गया है--
सतरै गुण सढ़ समै वच्छराजपुर चौमास म,
सुविध जिणंद प्रसाद थी पूगी मननी आस । म । इस प्रकार आपका साहित्य १८वीं शती के पूर्वार्द्ध के श्रेष्ठ सर्जकों के समान संख्या और गुण दोनों में सम्माननीय है । आपने जैन धर्म के दान और शील नामक प्रमुख तत्त्वों को प्रतिपादित करने के लिए प्रमाण स्वरूप विक्रमादित्य, सुभद्रा जैसे ख्यात पात्रों और उनकी कथाओं को चुना है । भाषा प्रसादगुण संपन्न मरुगुर्जर है।
मानसिंह 'मान'-ये विजयगच्छ के विद्वान् थे । इन्होंने सं० १७४६ में उदयपुर के महाराणा राजसिंह की प्रशस्ति में 'राजविलास' १. सम्पादक कस्तूरचन्द कासलीवाल-राजस्थान के शास्त्रभंडारों की ग्रंथ
सूची, भाग ४, पृ० २१८ । २. मोहनलाल दलीचन्द देसाई-जैन गुर्जर कवियो, भाग २, पृ० २२०-२२४,
भाग ३, पृ० १२२८-३१ (प्र०सं०) ।
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