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मानसागर
इसमें दान का माहात्म्य समझाया गया है, यथा-
दान सील तप भावना, चारे जग में सार, सरिषा छै तौ पणि इहां, दान तणो अधिकार |
रचनाकाल
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सतर सई चउवीसइं जांण, काति (मृगशिर) मास बषांणा जी ; कुडइ नगर रह्या गुणषाणें ग्रंथ चढ्यो परिमाण जी ।
गुरु परम्परान्तर्गत कवि ने विजयदेव, विजयप्रभ, विद्यासागर, सहजसागर, जिनसागर और जीतसागर को प्रणाम निवेदित किया है । यह रचना अपने समय में अधिक लोकप्रिय हुई क्योंकि इसकी बीसों प्रतियाँ विभिन्न ज्ञानभण्डारों में सुरक्षित हैं ।" सुरपतिकुमार रास सं० १७२९ और आषाढ़भूति चौपाई अथवा सप्तढालियुं सं० १७३० की रचनाएँ हैं । इनकी अन्य प्रसिद्ध रचनाओं में आर्द्रकुमार चौपई (सं० १७३१ मागसर, सुराय) की कुछ पंक्तियाँ उदाहरणार्थ प्रस्तुत हैंआदि - - संतिकरण संतीसरु अचिरासुत अरिहंत, तस पदपंकज सेवतां, लहीये सुख अनन्त । तास तौ चरणै नमी, आणी अधिक उलास, आर्द्रकुमार ऋषि गावतां पहुँचे मन नी आस । रचनाकाल -- उडुवति वह्नि मुनि चंद्रमा, अह संवत्सर जाणी रे, मृगसिर मास वषाणी रे । नयर सखर सूराय नै तवीयो ओ मुनि भाग रे, दिन दिन कोडि कल्याण रे ।
कान्ह कठियारा नो रास (९ ढाल सं० १७४६, पद्मावती गाँव मारवाड़) *
आदि - - पारसनाथ प्रणमुं सदा त्रेवीसमो जिनचंद,
अलिन विघन दूरे हरे, आपे परमानन्द |
यह रचना शील के महत्व को प्रकाशित करती है, यथा-शीले सुख सम्पद मिले, शीले भोग रसाल, कठियारा कान्हड परे, फरे मनोरथ माल ।
१. मोहनलाल दलीचन्द देसाई - जैन गुर्जर कवियो भाग ४, पृ० ३२९-३३५
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( न० सं ० ) ।
२. वही भाग ४, पृ० ३२९-३३५ (न०सं० ) ।
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