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मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास मतिसार -खरतरगच्छ जिनरत्नसूरि>जिनवर्धमान के शिष्य थे। आपने 'धन्ना ऋषि चउपइ' की रचना सं० १७१० आसो शुक्ल ६, खंभात में पूर्ण की। रचनाकाल इस प्रकार बताया हैं -
तस शिष्य वधमान जगीसे, आसो सुदि छठि दिवस जी संवत सत्तर बाहोत्तर वरसै, खंभाइत मन हरष जी। ओ संबंध रच्यौ मतिसारै नवम अंग अणुसारै जी,
भवियण जण नै वांचण सारै विसतर जो जगि सारै जी। मोहनलाल दलीचंद देसाई ने शंका की है कि जिनसिंह सूरि मतिसार जिनकी चर्चा इस ग्रंथ के द्वितीयखंड में की जा चुकी है और जो जैन गुर्जर कवियो भाग १ के पृ० ५०१ पर वर्णित है वे और प्रस्तुत मतिसार संभवतः एक ही कवि हैं। उन मतिसार की शालिभद्ररास
और प्रस्तुत मतिसार की धन्नाऋषि चउपइ शायद एक ही रचना हो । बिना प्रतियों का मिलान किए इस संबंध में कुछ निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता।
देसाई ने जैन गुर्जर कवियो भाग २ पृ० ८०-८१ पर मतिसार की चर्चा की है किन्तु इस ग्रन्थ के नवीन संस्करण में मतिसार की चर्चा सम्पादक ने नहीं की है, शायद सम्पादक कोठारी को निश्चय हो गया कि ये दोनों एक ही हैं।
मनराम--'इनकी गुरुपरम्परा और विशेष जीवनवृत्त का पता नहीं चल सका है किन्त इनकी रचनाओं को देखते हए लगता है कि ये १८वीं शताब्दी के जैन हिन्दी लेखकों में अच्छे लेखक थे । इनका भाषा पर अच्छा अधिकार था। इन्होंने अक्षरमाला, धर्मसहेली, मनरामविलास, बत्तीसी गुणाक्षरमाला आदि कई अच्छी रचनाएकी हैं। साहित्यिक दृष्टि से भी ये रचनायें श्रेष्ठ मानी गई हैं।
मनोहरदास अथवा मनोहर-(रचनाकाल सं० १७०५-१७२८) ये सोनी गोत्रीय खण्डेलवाल वैश्य थे और सांगानेर से आकर धामपुर में रहने लगे थे। ये धामपुर के नगरसेठ आसू के मनोरम आश्रम में रहते १. डा० कस्तूरचंद कासलीवाल--राजस्थान के जैन शास्त्र भंडारों की ग्रंथ
सूची भाग ३ पृ० १७ ।
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