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मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास । पर्युषण पर्व व्याख्यान नी अथवा कल्पसूत्र नी संञ्झाय अथवा भास (११ ढाल), आदि -- परब पजूसण आवीया आणंद अंग न माये रे,
घरेधरि ऊछव अति घणा श्री संघ आवी जाये रे । अन्त- रूपामहोर प्रभावना करीओ नव सुखकार रे,
श्री खेमविजय कविराय नो बुध माणिक्य विजे जयकार रे । यह कृति जैन प्राचीन स्तवनादि संग्रह और अन्यत्र से भी प्रकाशित है। चौबीसी या २४ जिन स्तवन का आदि इस प्रकार है--
प्रथम जिनेसर प्राहुण जगवाहला वारु, आबो अमहेय गेह रे, मनमोहन मारु, भगति करूं भलीभाँति सु, जगवाहला वारु,
साहिब जी ससनेह रे, मनमोहन गारु । अन्त- संप्रति शासनईस चरम जिणेसर वांदीइ,
श्री खीमविजय बुधसीस, कहि माणिक चिर नंदीइ ।'
माणिक्यसागर--इन्हें श्रीपाल रास का कर्ता बताया गया है किन्तु यह रचना ज्ञानसागर की है। इनकी गुरुपरम्परा इस प्रकार है
अंचलगच्छीय गजसागर सूरि7 ललितसागर7 माणिक्यसागर के शिष्य थे ज्ञानसागर । यही ज्ञानसागर श्रीपाल रास के वास्तविक कर्ता हैं इसलिए श्रीपाल रास का विवरण ज्ञानसागर के साथ दिया गया है। एक अन्य माणिक्यसागर १९वीं (वि०) के प्रथम चरण में हए हैं जो कल्याण सागर के अग्रज गुरुभाई क्षीरसागर के शिष्य थे। उन्होंने सं० १८१७ में कल्याणसागर सूरि रास लिखा। यह रास जैन ऐतिहासिक काव्यसंचय पृ० १७२ पर प्रकाशित है और इसका विवरण १९वीं शताब्दी में ही देना समीचीन होगा।
माणेकविजय -- आपके गुरु तपागच्छीय रूपविजय थे। आपने २४ जिनस्तवन अथवा चौबीसी की रचना सं० १७८८ से पूर्व की थी। इसके आदि और अंत की पंक्तियाँ प्रस्तुत की जा रही हैं-- १. मोहनलाल दलीचंद देसाई-जैन गुर्जर कवियो, भाग २, पृ० ५६७,
भाग ३, पृ० १४५२ (प्र०सं०) और भाग ५, पृ० ४१-४३ (न०सं०) ।
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