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माणिक्य
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मांकण नो चटको वोहिला, केहने नवि लागें सोहिलो रे
___मांकण मुबालो। ओ तो निलज ने नहि कान, अहने हीयडे नहि सान रे ।
अंक हतो पाट पलंग मांहि आवे, चटको देव छांतो जावें रे । इसकी अंतिम पंक्तियाँ निम्नांकित हैं---
माणिक्य मुनि कहे सुणो सरणा, तुम जीवनी करजो जयणा रे, मांकण भरुअच्छ नगर थी आव्यो, रामधनपुर मांहि गवायो रे ।'
माणिक्य विजय-आप तपागच्छ के शान्तिविजय के प्रशिष्य और क्षमाविजय के शिष्य थे। इन्होंने नेमराजुल बारमासा (५७ कड़ी) सं० १७४२ वैशाख शुक्ल तृतीया रविवार को पूर्ण किया, इसका आदि देखिए
प्रणमु प्रेमिरे सरसती बरसती वचन विलास,
कवि जन संकट चूरती, पूरती वंछित आस । रचनाकाल -
सतर वेतालीस संवत, वारु वैशाख मास सूदि तृतीया नि रविवासार संथव्या बारेमास । वाचक शान्तिविजय तणो, खीमविजय बुध सीस,
श्री हेमविजय सुपसाय थी, माणिक्य पुगी जगीस। अन्त - वांधीयो तन मन प्रेम पासे,
जाय यदुनाथ ने रहत पासे, बारमें मास ते विरह रलीओ,
आय माणिक्य नो सामी मलीओ। यह रचना प्राचीव मध्यकालीन बारहमासा संग्रह भाग १ में प्रकाशित है।
१. मोहनलाल दलीचंद देसाई-जैन गुर्जर कवियो, भाग ५, पृ० ४२२
(न० सं०)। २. वही, भाग ५, पृ० ४१-४३ (न०सं०) ।
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